Sunday, December 21, 2014

मन की बात

हमारे भारतीय परिवेश में लड़कियों के लिए शादियाँ किसी जुए से कम नहीं होती. अधिकतर तो हार ही जाती हैं ये जुआ, बाकी बची हुई जीत के मुगालते में ख़ुशी ख़ुशी जिंदगियां निकाल लेती हैं. शादी का अमूमन अर्थ हमारे यहाँ लड़की नाम की बूँद का पति और उसके परिवार वालों रूपी महासागर में विलय हो जाना ही है. जिसे आसान शब्दों में कहा जाए तो खुद का अस्तित्व खोना. एक फला-फूला वृक्ष जड़ों समेत उखाड़ कर किसी और आँगन में प्रतिरोपित करने का ये सिस्टम कई बार समझ से बाहर होता है. ख़ास तौर से तब जब ना पनपने की सूरत में कोई और आँगन ढूँढने का या पुराने गुलशन में लौट आने का विकल्प उसके पास उपलब्ध ना हो. ऐसे किसी विकल्प के बारे में सोचना भी लड़कियों के लिए चारित्रिक हमले को न्यौता देने के बराबर है. कुल मिला कर हमारी सामाजिक मशीनरी का एक एक पुर्जा इस बात पर दृढ-प्रतिज्ञ दिखाई देता है कि लड़कियां अपना अस्तित्व मिटा कर किसी और जूते में अपने पैर फिट कर लें. इस अपेक्षा से इतनी ज्यादा चिढ़ नहीं होती बशर्ते कि उम्मीदों का ये ट्रैफिक एकतरफा ना होता. खैर, फिलहाल तो इस समस्या का ( जिसे समस्या ना मानना भी एक बड़ी समस्या है ) कोई हल दिखाई नहीं देता. कोई अल्टरनेटिव नहीं होने की वजह से इसे चुपचाप कबूलने के सिवा और कोई चारा नहीं. कई लोगों को मेरी ये बातें बेहद अजीब, डिप्रेसिंग और गैर-जरुरी लग रही होंगी. ख़ास तौर से तब जब एक हफ्ते बाद मेरी खुद की शादी है. लेकिन जहाँ तक मैं समझती हूँ अपनी बात कहने के लिए मेरे पास ये शायद आखिरी मौका है. अभी नहीं कहा तो शायद कभी नहीं कह पाउंगी. आप सब लोगों ने मेरी बातें अब तक बेहद संजीदगी से सुनी हैं. एक आखिरी बार मैं चाहती हूँ कि आप तवज्जों से मुझे सुनें. लम्बा या बोरिंग लगे तब भी.

मुझे बहुत कुछ कहना है.

मैं शुरू से शुरू करती हूँ. दो साल हुए मुझे फेसबुक पर. मेरी ज़िन्दगी को बेहद आसानी से दो भागों में बांटा जा सकता है. एक वो तेईस साल जो मैंने शिक्षा के लिए परिवार वालों से लड़ते भिड़ते, किताबों से ज़बरन उन्सियत बनाते और दुनिया को समझने की नाकाम कोशिशें करते हुए गुजारें. और दूसरी तरफ वो दो साल जो इस चेहरे की किताब पर आ कर खुद को डिस्कवर करते, अपने मूल्यों के प्रति संजीदा होते और सही-गलत को उनकी प्रचलित परिभाषाओं के परे जा कर समझते हुए बिताये. एक रुढ़िवादी मुस्लिम परिवार में जन्म लेने के कारण लोगों से मेलजोल पे लगी पाबंदियों के बीच जीते हुए कभी मौका ही नहीं मिला ये समझने का कि इस दुनिया का आम आदमी किस तरह सोचता है. इस मामले में ये फेसबुक बेहद क्रांतिकारी टूल साबित हुआ मेरे लिए. इस की सबसे बड़ी खासियत यही है कि अमूमन लोगों की थॉट-प्रोसेस यहाँ स्पष्ट रूप से नज़र में आ जाती है. और इसी वजह से अपने आसपास के समाज का एक कलेक्टिव जजमेंट आसानी से हासिल हो जाता है. शुरू शुरू में सिर्फ नज्में/ग़ज़लें शेयर करने में व्यस्त रहा करती थी मैं. फिर मित्र अवनीश कुमार जी के कहने पर खुद भी कुछ लिखना शुरू किया. अपना लिखा पसंद करते लोग देख कर सुखद हैरानी होती थी कि क्या मुझे सच में ही लिखना आता है ? अब तक मैं सिर्फ एक पाठक रही थी. कलम पकड़ने का तजुर्बा नया था. लेकिन जब सिलसिला शुरू किया तो रुकी ही नहीं. आप सब ने कदम कदम पर हौसला-अफजाई की. तारीफ़ में पीठ ठोंकी तो गलतियों पर चेताया भी. आहिस्ता आहिस्ता आप सब की नज़रों में मेरा वजूद आकार लेता चला गया. Nobody से Somebody तक के इस सफ़र में बेशुमार नये रिश्तें मिलें. बेहद अनमोल.

फिल्में, किताबें, धर्म, राजनीति हर विषय पर मैंने जी भर के लिखा. सार्थक था या नहीं पता नहीं लेकिन आप सबने खूब पसंद किया. मुझे इस एहसास से लबालब भर दिया आप लोगों ने कि मुझे भी कुछ आता है. मैं इस दुनिया की भीड़ बढाने वाली एक नग मात्र नहीं हूँ. बल्कि मेरा भी एक वजूद है. जिसका एहतराम किया जाता है. जब सरासर अनजान लोग मेरे इनबॉक्स में आ कर मुझ से मशवरा मांगते हैं कि दीदी मुझे क्या करना चाहिए तो मुझे हैरानी होती है अपने दोहरे व्यक्तित्व पर. ये ज़ारा उस ज़ारा से कितनी अलग है जिसकी राय को एहतराम देना तो दूर कोई पूछना भी जरुरी नहीं समझता असली दुनिया में. बेहद परेशान करता रहा है ये सवाल मुझे कि क्या मेरे अन्दर सचमुच वो काबिलियत है कि लोग अपनी परेशानियों को मुझ से शेयर करें और मेरी राय मांगे. अगर हाँ तो मैं अपनी इस सलाहियत से अपने परिवार को क्यूँ नहीं मुतमईन कर पाईं कभी ? आपमें से कुछ एक ख़ास मित्रों को छोड़ कर बाकी किसी को नहीं पता होगा कि मैंने सिर्फ बीए तक की पढ़ाई की है. वो भी प्राइवेट. कॉलेज की शक्ल नहीं देखी कभी. एक अदद इन्टरनेट कनेक्शन लगवाने के लिए मुझे जितना संघर्ष करना पड़ा उसकी मिसाल दूसरी न होगी. ज़माने भर में मशहूर ज़ारा के खुद के परिवार वालों को इस बात की भनक भी नहीं है कि उनकी बेटी फेसबुक जैसी सोशल साईट पर है और इतने ज़बरदस्त तरीके से है. और लग जाने पर नतीजा सुखद किसी हाल में नहीं निकलेगा. यही वजह रही कि मेरी वाल पर प्रोफाइल पिक्चर वाला आयताकार टुकड़ा मेरी शक्ल के लिए हमेशा ही तरसता रहा. यही वजह है कि मेरी शादी की ख़ुशी में मुझे गिफ्ट्स देने के लिए बेकरार आत्मीय जनों को मैं अपना पता तक नहीं बता सकी. क्यूँ कि इस ‘ज़ारा खान’ को अपने परिवार के सामने एक्सप्लेन करना नामुमकिन है मेरे लिए. ना सिर्फ नामुमकीन है बल्कि घातक भी. आप सब लोग समझदार हो. अनकही बातें समझ जाने की काबिलियत आपमें यकीनन होगी.

खुद को परदे में रखने की अपनी इस मजबूरी के चलते मुझे कई बार बेहद शर्मिंदगी भी उठानी पड़ी. हमारे फेसबुक पर ये चलन आम है कि गाहे-बगाहे लोगों को फेक घोषित करते रहना. इस राय-शुमारी की चपेट में मैं कई बार आई. विदेश में रहते और एनजीओ के बिजनेस में दखल रखते एक मशहूर कामरेड साहब ने सब से पहले मुझे फेक कहा और मेरे तमाम सवालों को वो इस एक इलज़ाम के आड़ में डक करतें गए. फिर उसके बाद गाहे बगाहे कई जगहों पर मेरी प्रोफाइल का लिंक चेंपते रहे. ऐसे ही एक बार एक महिला की वाल पर जारी ऐसे ही डिस्कशन के बीच मेरी लिस्ट में शामिल Santosh Singh सर ने उनसे वो सवाल पूछ लिया जो मेरी जुबान पर हमेशा रहा करता था. वो ये कि नफरत भरें पोस्ट्स लिखने के लिए, धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए या किसी राजनीतिक विचारधारा के अंध समर्थन के लिए तो फेक अकाउंट का औचित्य समझ में आता है लेकिन सार्थक लिखने के लिए क्यूँ ? उस एक सवाल के लिए मैं संतोष सर की कितनी एहसानमंद हूँ ये मैंने उन्हें आज तक नहीं बताया. आज बता रही हूँ. क्यूँ कि आज नहीं बताउंगी तो ये बात मेरे साथ ही चली जायेगी. शुक्रिया संतोष सर, एक निहायत ही सेंसिबल सवाल करने के लिए. खैर, इस तरह का ये एकाध ही हादसा हुआ हो ऐसी बात भी नहीं है. एक और दिल दुखाने वाले घटनाक्रम में मेरे वजूद को मानने से उस शख्स ने इंकार कर दिया जो शुरूआती दिनों से मुझ से परिचित था और इनबॉक्स में मुझ से घंटों बतियाता था. मैंने उसे भी हलाहल समझ के पी लिया. इस तरह की सब से बड़ी और आत्मविश्वास को चकनाचूर करने वाली घटना तब हुई जब एक बेहद ही मशहूर वाल पर मेरे नाम से पोस्ट डाली गई और बाकायदा मेरे वजूद के चिथड़े उड़ायें गए. ना सिर्फ उन्होंने बल्कि उनके दर्जनों समर्थकों ने बिना मुझे जाने-पहचाने बेहद शानदार शब्दों में मेरी इज्जत-अफजाई की. ये बात अलग है कि उसके फ़ौरन बाद उनमें से कईयों ने मुझे रिक्वेस्ट भेजी जिसे कि मैंने स्वीकार भी कर लिया. वो रात बेहद ही भयानक थी मेरे लिए. एक पल को आँख न लगी. फेसबुक छोड़ देने का पक्का निर्णय कर लिया था उस रात. लेकिन सुबह फेसबुक खोलने पर कुछ अज़ीम हस्तियों ने मेरी बेहद दिलजोई की. बहुत सी बातें समझाई. ना जाने का आग्रह किया. और मैं बनी रही. यहाँ ये कहना बेहद जरुरी है कि उन जनाब से आगे मेरे रिश्ते बेहद अच्छे हो गए और उस प्रलयंकारी पोस्ट की कडवाहट का नामोनिशान नहीं रहा. जिसकी मुझे बहुत ख़ुशी है.

हमारे रुढ़िवादी समाज और धार्मिक कट्टरता का शिकार मैं कई बार मजहबी पाबंदियों के प्रति तल्ख़ हुई तो इसकी वजह मेरा भोगा हुआ यथार्थ ही था. एक संकीर्ण मानसिकता से मेरा हुआ नुकसान मुझे मुखरता से लिखने के लिए जैसे उकसाता था. फिर भी मैंने भरसक कोशिश की कि मेरा लेखन महज़ कोसाई का नमूना ही बन कर ना रह जाए. मैंने कोशिश की कि नकारात्मकता से पॉजिटिविटी की तरफ के सफ़र की मैं फ्लैग बियरर बनूँ. यहाँ ये सब लिखने के पीछे मेरा मकसद ये कतई नहीं है कि मैं अपने आप को पीड़ित घोषित कर के हमदर्दियां बटोरूँ. बल्कि मुझे सच में लगता है कि लड़कियों के सपनों की हत्या हमारे समाज के ब्लड सिस्टम में घुला एक बेहद खतरनाक वायरस है. बेहद सामान्य बात है ये. और इसका सामान्य होना ही इसका सब से भयावह पक्ष है. रिवाज ही नहीं है हमारे यहाँ ये मानने का कि लडकियां लड़कों जितनी ही काबिल हो सकती हैं या संसाधनों पर, अपनी दुनिया खुद बनाने के लिए जरुरी मौकों पर उनका भी समान अधिकार है. ऐसा क्यूँ है मैं नहीं जानती. लेकिन ऐसा है इससे शायद ही कोई इनकार करने का साहस करे. हाँ, अपवाद हर जगह होते हैं. यहाँ भी हैं. लेकिन मैं एक बड़े वर्ग की बात कर रही हूँ. ख़ास तौर से मेरे अपने मजहब की लड़कियों की. मेरा दिल लरज़ता है ये देख देख कर कि ज्यादातर मुस्लिम लड़कियों की जिंदगियां सूट का कलर डिस्कस करने में, मेकअप की फ़िक्र में या शादी की अनिश्चितता की सूली पर लटके लटके ही ख़त्म हुई जा रही है. सामयिक राजनीति, देश-दुनिया इन के बारे में उनकी जानकारी जीरो है. दुनिया के महान लोकतंत्र कहलाने वाले हमारे मुल्क का एक बड़ा तबका इसकी निर्माण प्रक्रिया में शामिल तो क्या इससे वाकिफ भी नहीं है. हम इतिहास पर लड़ते भिड़ते रहते हैं. हमारा वर्तमान कितनी सियाह कालिखें अपने चेहरे पर पोते बैठा है इसकी हमें परवाह ही नहीं. ये ऐसा क्यूँ है ये मैं नहीं जानती. इसे कैसे बदला जाएगा इसका भी मुझे दूर दूर तक कोई इमकान नहीं. लेकिन ये गलत है ऐसा मेरा दृढ विश्वास है. बल्कि गलत नहीं गुनाह है.
अब मेरी शादी हो रही है. हमारा समाज बेटियों के मुकाबले बहुओं के लिए कितना सहनशील है ये मुझे अलग से बताने की जरुरत नहीं. और इसीलिए मुझे गारंटी है कि मेरे फेसबूकिया जीवन का ये अंत है. मुझसे कई लोगों ने ये सवाल किया कि इस दुश्चक्र से निकलना इतना मुश्किल क्यूँ है तुम्हारे लिए ? ख़ास तौर से तब जब फेसबुक के माध्यम से मदद करने वाले इतने हाथ उपलब्ध है ? मेरा जवाब ये है कि मैं जानती हूँ के लोगों के ज़हनों को जकड चुकी सामाजिक सीमायें और मजहबी कट्टरता जब अपनी औकात पर उतरती है तो सर्वनाश पर उतारू हो जाती हैं. और मैं खुद को दाँव पर लगाने का हौसला तो कर सकती हूँ लेकिन अपने कुछ गिने चुने आत्मीय जनों के लिए जानलेवा दुश्वारी खड़ी करना मेरे लिए असंभव है. वैसे भी ये सिर्फ एक ज़ारा की बात नहीं है. सिर्फ एक ज़ारा की बेहतरी के लिए शायद हम कुछ कर भी लें लेकिन उन हज़ारों लाखों जाराओं का क्या जिनके सपनों का खून करने के हम आप सब गुनाहगार हैं और फिर भी बेशर्मी से जिए जाते हैं. पाश कहा करते थे कि सब से खतरनाक है सपनों का मर जाना. इस हिसाब से देखा जाए तो हमारा समाज वक्त से पहले क़त्ल कर दिए गए ऐसे सपनों की विशाल कब्रगाह है. वैसे मुझे यकीन है भारत महान क़यामत के दिन तक स्त्री को देवी मानने की अपनी महान परंपरा का निर्वाहन करता रहेगा. दिल में गुबार लिए मैं सिर्फ एक बात कहना चाहती हूँ. अगर समझ आये किसी के तो ठीक है नहीं आये तो भी ठीक. बेटियों को जब तक घर-खानदान की इज्ज़त समझा जाता रहेगा तब तक उनकी औकात एक फर्नीचर पीस से ज्यादा कभी नहीं होने वाली. उसे एक स्वतंत्र अस्तिव मान लेना ही उसके प्रति सच्ची मुहब्बत होगी. और मुझे पूरा यकीन है कि हम उस मुकाम को कभी हासिल नहीं कर पायेंगे.

खैर, लेक्चर बहुत हुआ. मैं ये ऐतराफ करना चाहती हूँ कि आप सब लोगों के साथ मैंने बहुत अच्छा समय गुजारा. मेरे जीवन का ये स्वर्णिम काल था. अनदेखे अनजान लोगों से मुहब्बतें पाना बेहद ख़ास घटनाक्रम था मेरी ज़िन्दगी का. अपने कुछ लिखे पर बड़े बड़े काबिल लोगों की तारीफें पाना बहुत सुकून पहुंचाता था. बेहद सुखद हुआ करती थी ये फीलिंग. अब कभी नहीं आयेगी. टर्मिनल इलनेस की वजह से मौत से नज़रें मिलाते मरीज़ को कैसा लगता होगा ये महसूस कर सकती हूँ इन दिनों. ये इतना लम्बा लिखना बुझने से पहले फडफडाते हुए दिये समान है और इसीलिए इसमें इतना शोर भी है. मैं लगभग श्योर हूँ कि ये मेरे फेसबूकीया जीवन का अंत है. कोई पुनर्जन्म जैसा चमत्कार हुआ तो बात दूसरी है वरना ये बिछड़ना स्थायी ही मानिए आप लोग. फेसबुक से दूर जाना कितना कष्टकारी है ये बयान करने के लिए मैं अगर सारी रात भी लिखती रहूँ तो भी कम है. मेरा तो पूरा वजूद ही फेसबुक की देन है. इससे बिछड़ना ऐसे ही है जैसे ज़हनी तौर पर मर जाना. जब भी कभी कोई नई चीज़ होगी, किसी नेता का बेतुका बयान आएगा, कोई अच्छी किताब पढूंगी, फिल्म देखूंगी तो उस सब के बारे में लिखने के लिए मेरी आत्मा तक छटपटाती रहेगी. पता नहीं उस भावना को मैं कैसे हैंडल करुँगी. लेकिन मुझे सीखना ही होगा.

अपने आने वाले जीवन में यूँ तो करने को कुछ होगा नहीं इसलिए एक छोटा सा मकसद बना लिया है जबरन. ताकि ज़िन्दगी बिलकुल ही निरर्थक ना लगे. अगर संतान का मुंह देखना नसीब हुआ तो मैं उन्हें एक बेहतरीन इंसान बनाने में अपना आप होम कर दूँगी. जो कुछ भी मुझे आता है उसे उन तक ट्रान्सफर करुँगी. कोशिश करुँगी कि वो उन लोगों में शुमार हो जिन्होंने इस दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिशें की है. आप सब दुआ कीजियेगा कि कम से कम इस एक मुहाज पर तो मुझे कामयाबी जरुर जरुर मिले.

उन चार सौ से ज्यादा लोगों से माफ़ी माँगना चाहती हूँ जिनकी फ्रेंड रिक्वेस्ट आई हुई है लेकिन बिछड़ने की इस बेला में मैं एक्सेप्ट नहीं कर सकी. मेरी पुरानी पोस्ट में टैग सभी आत्मीय जनों से मेरा आग्रह है कि वो अपना पता, फ़ोन नंबर आदि मेरी इस मेल आईडी पर मुझे मेल जरुर जरुर करें. Zaara116@gmail.com .बिलकुल भी ना भूलें. जिन्होंने फेसबुक पर पहले दिया है वो भी. फेसबुक का अकाउंट का क्या है, आज है, कल नहीं और तालिबानियों की वजह से परसों की गारंटी नहीं.

अगर आप लोग भूल गए हो तो एक बार फिर बताना चाहूंगी कि फेसबुक पर आज तक जो भी लिखा वो इस ब्लॉग पर उपलब्ध है.

http://zaara-khan.blogspot.in/

कल आखिरी बार आ कर इसे आज तक अपडेट कर दूंगी.

अंत में सिर्फ यही कहूँगी कि मेरा जर्रा जर्रा आप सब लोगों का शुक्रगुजार है. मैं जहाँ कहीं भी रहूंगी हर एक पल आप लोगों को याद करुँगी. ये आभासी दुनिया मुझे असल दुनिया से ज्यादा भायी थी. इसका क़र्ज़ भी है मुझपर. और मैं एहसान-फरामोश नहीं. मैं एक बार फिर भरे अंतकरण से और नम आँखों से आप सब लोगों से विदाई चाहती हूँ. और हाँ, मेरे ख़ास अजीजों से गुजारिश है कि वे अपनी आँखें ना भिगोये प्लीज. बेटी की बिदाई में भी कोई रोता है भला ? बस मेरे लिए दुआ कीजियेगा कि मेरे संतप्त मन को कभी न कभी करार आये. या फिर मेरी सवाल पूछने की आदत छूट जाए.

सदा मुस्कुराते रहिएगा आप लोग. और इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश में जुटे रहिएगा.

अंत में एक फ़िल्मी गीत की ये पंक्तियाँ हाजिर है हमेशा की तरह,

“साथी यूँ तुम को मिले,
जीत ही जीत सदा
बस इतना याद रहे,
इक साथी और भी था.”

 ------- आपकी अपनी 'ज़ारा'.

Thursday, December 18, 2014

तमाम फेसबूकिया अजीजों के लिए

Prem Prakash दद्दा, Alive Hopes जी, हितेन्द्र अनंत भाई, अवनीश कुमार जी,
Mohmmad Mushtaq Patel भाई, तारीफ़ भाई, Manish Dubey जी, विभांशु दिव्याल जी,
Gurvinder Singh भाई जी, डॉ. अजीत जी, Ali Syed सर, Syed Quaisar Hussain Zaidi भाई, Lenin Vivek Bansal जी, Manmohan Singh जी, Suchhit Kapoor जी, रीटू खान जी, Deonath Dwivedi सर, Kapil DEv जी, Akram Shakeel जी, Santosh Yadav जी, सतवीर सिंह भाई जी, Emran Rizvi जी, Shakil Ahmed Khan भाई, Khalid A Khan जी, Ashish भाई, Shabbir Husain Qureshi जी, Pankaj Srivastava जी, Shahid Mansoori जी, बे- धर्मी जी, बे- शर्म जी, Tara Shanker जी, गिरीश विश्वकर्मा जी, Anuj Sharma जी, संदीप भालेराव जी, Jalal Tamboli जी, Ujjwal Pandey, Syed Shanur Rahman जी, Vipul Gupta जी, Sunil Amar जी, Abdullah Aqueel Azmi भाई, आत्म अभिरक्षा जी, विनोद यदुवंशी जी, Somnath Chakraborti कामरेड, Yuva Deep Pathak जी, Nalin Mishra जी, Vivek Srivastava जी, Ashu Bhai Mansoori जी, Ashutosh Ujjwal जी, Aleem Khan जी, Mayank Priyadarshi जी, Rounak Thakur जी, Mandeep Kataria जी, अवनीश जी, सय्यद ज़फर रज़ा जैदी भाई, Omkar Dixit भाऊ..
मेरी प्यारी Prerna, शीरीं बाजी, Ghazal, Aarohan Paintings श्रेया, Najiya, Iram,
Priyanka दी, Varsha Patil ताई, Anita दी, हेमा दी, Sudesh दी, Fatima Tabassum अप्पी, Amrita दी, Huma बहना, Ruqaiya बाजी, Amrita Raniyal दी, नाज़िश अंसारी बाजी, Namrata Shukla दी, Shruti जी, Snehal जी, Reshma Hitendra Anant ताई, दीप संदेश जी...

आप सब लोगों से मुझे एक ही बात कहनी है.

~~~~~~~~~ थैंक यू ~~~~~~~~~~~

आप सब का मेरी ज़िन्दगी में होने के लिए शुक्रिया. शुक्रिया मेरी मुलाक़ात मुझ से करवाने के लिए. आप ने - आप सब ने - समय समय पर मेरी बेशुमार हौसला अफजाई की. मेरी अच्छी बातों के लिए जहां मेरी दिल खोल के तारीफ़ की वहीँ गलतियों पर टोका भी. आपने मुझमे वो आत्मविश्वास भरा जिसके वजूद से मैं खुद ही अनजान थी. आप लोगों को देख देख कर मैंने सीखा कि प्रेम, करुणा, शान्ति, समता आदि मूल्य कभी भी आउट ऑफ़ फैशन नहीं हो सकते. उन की हिफाज़त करने वाले लोगों की तादाद अभी भी काफी ज्यादा है. आप सब के साथ बिताये लम्हें मेरे जीवन की वो धरोहर है जिसे अंतिम सांस तक भी भुलाना नामुमकिन है. सवा अरब लोगों की आबादी का मात्र एक नग इस लड़की को आप लोगों ने 'ज़ारा' बनाया. बेशुमार प्यार दिया. ख़ाक से उठा कर गले से लगाया. मैं आपकी बेलौस मुहब्बत की कर्ज़दार हूँ. और हमेशा रहूंगी.
जाहिर है अपनी नादानी की वजह से मैं बहुत से नामों को मिस कर रही होउंगी. इसके लिए मुझे माफ़ कर दिया जाए प्लीज. आज कल ज़हन ठीक से काम नहीं कर रहा.

इन सब आत्मीय जनों के अलावा उन सब का भी शुक्रिया जिन्होंने मेरी पोस्ट्स पर अच्छे अच्छे कमेंट्स कर के मेरा हौसला बढाया.

आप सब ना होते तो मुझे पता ही नहीं चलता कि मुझ में क्या क्या हुनर है. हालांकि मेरे कहने का मतलब ये कतई नहीं है कि मैंने किसी आला मुकाम को हासिल कर लिया है. मैं अभी भी नातजुर्बेकार और जिज्ञासु तालिब-ए-इल्म ही हूँ. हाँ, सीखने समझने की प्रोसेस हमेशा जारी रहेगी इसका वादा है आप लोगों से. मुहाज चाहे जो हो फिर.

आप सब का दिल की तमामतर गहराइयों से, वजूद के जर्रे जर्रे से शुक्रिया... थैंक यू सो मच..
"हाँ मानती हूँ कि मुझे में थी चमक सी थोड़ी जरुर,
गर आप न होते, कैसे बनती, कांच से कोहिनूर.."

--------
आपकी अपनी
ज़ारा.

Wednesday, December 17, 2014

उम्मीदें कभी नहीं मरती

पूरी दुनिया पर छाई मनहूसियत इंसानियत के जिंदा होने की गवाही दे रही है. हर वो आँख जो इस हादसे पर रोई है इस बात पर प्रतिबद्ध दिखाई दे रही है कि इस घुप्प अँधेरे से रास्ता हम जरुर ढूंढ निकालेंगे. नहीं हारेंगे हौसला. धुंधलाती नज़रों, लरजती आवाजों और कांपते वजूदों के साथ खडें हैं हम एक दूसरे का हाथ थाम कर. एक दूसरे के लिए, मनुष्यता के लिए, नई पीढ़ी के सपनों की ज़मीन बचाने के लिए.
ईश्वर को हमने देखा नहीं. वो है या नहीं इस पर बहस भी फ़िज़ूल है. हमने देखी है मानवता. हम ने देखें है नन्हे नन्हे मासूम खिलौनों के लिए मचलते हुए. सुना है उनकी किलकारियों को. छुआ है उनकी मुस्कुराहटों को. जिया है उनके जरिये से कुदरत को. इस सब को बचाने के लिए हम डटें रहेंगे. नहीं हारेंगे. नहीं टूटेंगे.

कभी नहीं.

कभी भी नहीं..

Tuesday, December 16, 2014

धरती का जहन्नुम

नर्क और कहीं नहीं है. पाकिस्तान में है.
जहाँ बच्चों को घेर के मारा जाता है. जहाँ ब्लास्फेमी लॉ जैसे बर्बर कानून हैं. जहाँ लॉ एंड ऑर्डर हुक्मरानों की सुरक्षा करने तक सीमित है और अक्सर उसमे भी फेल ही रहता है. जहाँ अगली सांस की गारंटी नहीं.
नहीं. जहन्नुम और कहीं हो ही नहीं सकता. वो पाकिस्तान में है. यकीनन है.

Monday, December 15, 2014

अजीब

आईना अजीब है ना चेहरा अजीब है
बस तेरे देखने का तरीका अजीब है


ये जानते हुए के शिकारी की ज़द में है,
बैठा है शाख पर वो परिंदा अजीब है.....


फिर भी मैं उसी बात पर हैरत-ज़दा रही,
हालांकि जानती हूँ मैं क्या क्या अजीब है...


------- अज्ञात.

Tuesday, December 9, 2014

आगाज़

हर डर को पीछे छोड़ कर परवाज़ करेंगे
हम फिर से नये सफ़र का आगाज़ करेंगे


तुम तल्ख़ लहज़ा कायम रखना जहाँ वालों,
हम खुशदिली को अपना अंदाज़ करेंगे


ज़ाहिर न हो पाये कभी हाल-ए-दिल किसी पर,
हम फूल, हवा, खुशबू को हमराज़ करेंगे


हस्सास बहुत हैं मेरे ख्वाबों के गुलों-रंग,
बस जरा सा छू लो, ये आवाज़ करेंगे


भाती है फकीरों की सादा-दिली हम को,
क्या मुतमईन हमें ये तख़्त-ओ-ताज करेंगे


किस किस को सौंपनी है ख़्वाबों की विरासत,
ये फैसला भी शायद हम आज करेंगे


लाजिम है हसरतों का हर क़र्ज़ चुका दें हम,
तामीर उन की कब्र पर इक 'ताज' करेंगे


जिस हाल में रखोगी हम तुझ से निभा लेंगे
ऐ ज़िन्दगी तुझे ना कभी नाराज़ करेंगे


हर हाल में की है तूने मुहब्बत की वकालत,
ये दोस्त तुझ पे 'ज़ारा' सदा नाज़ करेंगे..


--------- ज़ारा.
08/12/2014.

Sunday, December 7, 2014

बीज

ये दुनिया मुझे दफ़न करना चाहती है.
लेकिन दुनिया को ये नहीं पता कि मैं एक बहुत शानदार बीज हूँ.
नई कोंपल के उग आने में कितनी देर लगेगी ?

हम हार गए

जब अपनी हदों से पार गये, हम हार गये..
सब लफ्ज़ यूँ ही बेकार गये, हम हार गये..


इक उम्र लगी थी जिन को चुन कर लाने में,
इक पल में सारे यार गये, हम हार गये..


वो बीच में आ कर डूब गये और जीत गये,
हम आग का दरिया पार गये, हम हार गये..


कुछ ख्वाब बशारत लौट के हम से रूठ गये,
कुछ लोग हमें धुत्कार गये, हम हार गये..



रुसवाई की ये रस्म हमीं से निकली है,
उस नगरी में हर बार गये, हम हार गये..


जग जीत गया ये बात तो है तस्लीम हमें,
हम हार गये, हम हार गये, हम हार गये..

------------ अज्ञात.

To Almighty

या तो कबूलियत के तरीके सीखा मुझे,
या मेरे दिल को बाँध दे अपनी रज़ा के साथ...

-------- अज्ञात.

Saturday, December 6, 2014

6 दिसंबर

शौर्य दिवस बनाम कलंक दिवस...
शायर इस्माइल मेरठी होते तो ये नौटंकी देख कर कहते,
"दोनों तरफ है फ्यूज बराबर उड़े हुए..."
और काका कहते,
"बाबू मोशाय, ये सर्कस फ्री में है रे.. एन्जॉय कर एन्जॉय."

Monday, December 1, 2014

एक संस्कृति-रक्षक की डायरी


1 जनवरी 2013 :-

           

आज मैं बहुत गुस्से में हूँ । साल का पहला ही दिन और मूड की ऐसी तैसी हुई पड़ी है । हर तरफ हैप्पी न्यू ईयर का शोर है । हर कोई पगलाया हुआ लग रहा है । पिछली सारी रात कानफोडू संगीत और शोर-शराबे को बर्दाश्त करते बीती । अभी दिन निकला नहीं है कि ‘हैप्पी न्यू ईयर’ कहने वालों के फ़ोन पे फ़ोन आने लगे हैं । अरे किस का न्यू ईयर ? कौन हैं हम ? हमारा नया साल चैत्र माह में शुरू होता है ये भूल गए क्या सब लोग ? महाराष्ट्र में नया साल गुढी-पाडवा से शुरू होता है, गुजरात में दिवाली से अगले दिन से, पारसियों का नवरोज़ से तो मुसलमानों का मुहर्रम से । तो ये किस का नया साल मना रहे हैं ये सौ करोड़ लोग ? सच कहते हैं स्वामी गोरखनाथ कि ये मूर्खों का देश है । अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति को भुलाकर हम लोग पाश्चात्य देशों का अन्धानुकरण करने में व्यस्त हैं । अपनी परम्पराओं से, अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं । हर कोई बस विदेशियों की नक़ल करने में लगा हुआ है । भले ही फिर वो कितना ही हास्यास्पद लगे । मेरठ जैसे शहर में ये हाल है तो दिल्ली-मुंबई में कितनी बेशर्मी हो रही होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है ।



ये सब रोकना होगा । किसी को तो रोकना ही होगा । हम रोकेंगे । ‘भारत निर्माण सेना’ रोकेगी । शाखा की अगली मीटिंग में मैं ये मुद्दा जरुर रखूँगा । मैं, राम शरण दूबे,  अपने देश की सभ्यता को यूँ नष्ट होते नहीं देख सकता । लगता है पचास की उम्र में मुझे ही कमान संभालनी होगी । युवा तो युवा मेरी उम्र के बूढ़े भी भ्रमिष्ट होने लगे हैं । सुबह सुबह ही बालसखा शुक्ला का फोन आया था । हैप्पी न्यू ईयर बोलने के लिए । मैंने ऐसी झाड लगाईं कि याद रखेगा ।



ये सब रोकना ही होगा । हम रोकेंगे । जरुर रोकेंगे ।



23 जनवरी 2013 :-



            आज नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती थी । शाखा में छोटा सा कार्यक्रम था । स्वामी गोरखनाथ मुख्य अतिथि थे । बढ़िया रहा सब । स्वामी जी ने अपने ओजस्वी अंदाज़ में भाषण दिया । स्वदेशी चीज़ों को इस्तेमाल करने की सीख दी । आंकड़ों के हवालों से साबित कर के दिखाया कि कैसे विदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल से हमारा देश विकास की दौड़ में पिछड़ रहा है । विदेशी चीजों से हमारे देश को बहुत नुकसान पहुँच रहा है । फिर चाहे वो विदेशी कपडें हो या विदेशी संस्कृति । हजारों साल पुरानी सभ्यता पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं । इन्हें रोकने का आवाहन किया उन्होंने । युवाओं से अपील की कि वो मेरे जैसे अनुभवी व्यक्ति में मार्गदर्शन में भारतीय सभ्यता को नष्ट होने से बचाने के प्रयास करें ।

           

स्वामी जी के जाने के बाद मैंने सभी सदस्यों के साथ एक बैठक की । समाज में फैलती गन्दगी पर चर्चा हुई और उससे निपटने के उपाय खोजे गए । लगता है ये मति-भ्रष्ट पीढ़ी दंड पा कर ही सुधरेगी ।





14 फ़रवरी 2013  :-



            आज का दिन बहुत व्यस्त रहेगा इस बारे में मुझे कोई शंका नहीं थी । आज वैलेंटाइन डे था । फिरंगियों की एक और लानत जो भारत देश की प्राचीन सभ्यता को तहस नहस करने पर तुली है । खून खौलता है मेरा जब देखता हूँ कि पश्चिमी सभ्यता के असर में पगलायें युवक-युवतियां सड़कों पर, पार्कों में, कॉफ़ी शॉप्स में बेशर्मी का नंगा नाच करते हैं । एक दूसरे को फूल, कार्ड्स, गिफ्ट्स देते हैं । सड़कों पर गले लगते हैं, पार्कों में चूमा-चाटी करते हैं । उसी पार्क में एक तरफ बच्चे खेल रहे होते हैं, बूढ़े आराम कर रहे होते हैं । उन सब की आँखों के सामने इनकी लज्जित करने वाली हरकतें जारी रहती हैं । कहाँ जा रहा है मेरा देश ? स्त्री, जो साक्षात देवी का प्रतिक है, सड़कों पर लगभग नंगी घूमने लगी है । इन सब को अगर वक्त रहते रोका ना गया तो वो दिन दूर नहीं जब भारत एक बार फिर गुलाम हो जाएगा । और इस बार की गुलामी स्थाई होगी ।

           

जैसा कि पहले से तय था हम सब सुबह दस बजे शाखा पर इकट्ठे हुए । किस हद तक जाना है इसकी एक रूप-रेखा बनाई गई और फिर हम निकल पड़े । सब से पहले हमारा निशाना बनी ‘आर्चिज गैलरी’ नाम की गिफ्ट शॉप । कमीनों ने दुकान ऐसे सजाई थी जैसे बेटी के ब्याह का मंडप हो । हर तरफ दिल के आकार के गुब्बारे, फूलों की सजावट, ‘हैप्पी वैलेंटाइन डे’ लिखे हुए बड़े बड़े बैनर्स, तीर-कमान लिए एक बच्चे के चित्र ( बाद में मुझे किसी ने बताया कि उसे क्यूपिड कहते हैं ) । मेरा तो देख कर खून ही खौल गया । मेरे इशारे की देर थी कि लड़के शुरू हो गये । जो सामने पड़ा तोड़ दिया । शीशे तोड़ें, सारी सजावट नोच डाली, बैनर्स फाड़ दिये, गिफ्ट आइटम्स फोड़ डालें, शीशे के काउंटर को पलट दिया । कुछ साबुत ना छोड़ा । वहां काम करने वाली तीन युवतियां और दो युवक इस सारे वक्त एक कोने में खड़े थर थर कांपते रहे । उनकी हिम्मत नहीं हुई कि वो किसी भी तरह का हस्तक्षेप करे । दस मिनट से भी कम समय में लड़कों ने उस जगह की ऐसी हालत कर दी जैसे वहां से कोई बुलडोज़र गुजर गया हो । वहां वालों को ये ताकीद कर के कि अगली बार अगर ऐसी वाहियात हरकतों को  बढ़ावा दिया तो दुकान फूंक के रख देंगे, हम वहां से निकल गए ।

           

हमारा अगला पडाव सिटी पार्क था । हाँ, रास्ते में हमने कुछ फूल विक्रेताओं को धमकाया और उनके फूल नाले में फेंक दिए । सिटी पार्क पहुँच कर मैंने तीन टीमें बनाई । पार्क के तीन गेट थे । दो टीमों को दो अन्य प्रवेशद्वारों की तरफ भेज कर मैंने कुछ लड़कों के साथ मेन गेट से प्रवेश किया । सुबह के ग्यारह बजे का समय था फिर भी पार्क में प्रेमी जोड़ों की भरमार थी । मेरा गुस्सा आसमान छूने लगा । मैं तीर की तरह आगे बढ़ा । एक बेंच पर एक लड़का एक लड़की की गोद में सर रख कर सोया हुआ था । मैंने उसे कॉलर से पकड कर उठाया और तड़ातड़ तीन-चार थप्पड़ जड़ दिये । लड़का दहशत में आ गया । लड़की चीखने लगी । मेरे युवा साथी अमित ने आगे बढ़ कर उसे भी एक थप्पड़ लगाया । तत्काल उसका चीखना बंद हुआ । मैंने लड़के के बाल मुट्ठी में भींच कर उसका सिर हिलाते हुये पूछा,

           

“कुत्ते, शर्म नहीं आती ऐसी हरकतें करते हुये ?”

           

डर के मारे लड़के के मुंह से बोल नहीं फूट रहा था । वो बस ‘अंकल....अंकल’ कह के चुप हो गया ।

           

“अंकल के बच्चे, इतनी ही जवानी बेकाबू हो रही है तो शादी कर लो और घर की चार-दिवारी में जो करना है करो । यूँ चौराहे पे अश्लील हरकतें करते हुए शर्म नहीं आती ?”



लड़की दिलेरी से बोली, “हम कोई अश्लील हरकतें नहीं कर रहे थे । हम तो बस बैठे थे ।”



“अच्छा ! घर नहीं है तुम लोगों के पास ? यहाँ क्यूँ बैठे थे ? ये जो छोटे छोटे बच्चे पार्क में खेल रहे हैं उन पर क्या असर पड़ेगा तुम्हारी इन हरकतों से ? और ये हाथ में क्या है तेरे ?”



लड़की ने हाथ का गुलाब छुपाने की कमजोर कोशिश की । लेकिन अमित ने उसके हाथ से गुलाब झटक कर मुझे पकड़ा दिया ।



“तेरे घरवालों को पता है तू इस वक्त क्या गुल खिला रही है वो ?” – मैंने भड़क कर पूछा ।



            “जी.......जी नहीं ।”



            “घरवाले तुम्हें इतने विश्वास से घर से बाहर भेजते हैं और तुम यूँ गोबर खाते फिरते हो । अरे कुछ तो शर्म करो । देश को रसातल में ले कर जा रहे हो तुम लोग । तुम लोगों को सबक सिखाना ही पड़ेगा ।”



            मैंने सब को एक जगह इकट्ठे करने का आदेश दिया । करीब पच्चीस जोड़ें पकड़ाई में आये थे । उनकी घबराई शक्लें देख कर मुझे थोडा अफ़सोस होने लगा । लेकिन नर्म पड़ने से काम नहीं चलने वाला था । ये राष्ट्र-हित का काम था । इसमें नर्मी के लिए कोई जगह नहीं थी । आज की सख्ती ही कल के लिए सबक बनने वाली थी । सबक सिखाना ही होगा इन पद-भ्रष्ट युवाओं को । लड़के लड़कियां बार बार माफ़ी मांग रहे थे जिन्हें नज़रअंदाज़ करते हुए मैंने लड़कों से कहा कि वो हर लड़की से लड़के को तीन तीन थप्पड़ लगवाएं और हर लड़के से लड़की को एक एक । और जब तक थप्पड़ पर्याप्त मात्रा में करारे न हो तब तक ये प्रक्रिया दोहराई जाये । उन्हें चेतावनी भी दे दी कि ऐसा करने से पहले उनकी खलासी नहीं होने वाली । डरते, सकुचाते उन्होंने जैसे तैसे इस टास्क को पूरा किया । ज्यादातर लड़कियों ने रोते हुए । कुछेक तो लड़के भी रोयें । मुझे घिन आई भारत महान के इस भविष्य को देख कर । उसके बाद मैंने हर लड़के-लड़की से कहलवाया कि वो दूसरे को आज के बाद भाई/बहन की नज़र से देखेंगे । जिन जिन लड़कियों ने जीन्स पहनी थी उनसे बीस-बीस उठक-बैठक करवाई । कुछ देर तक और डराने धमकाने के बाद हमने उन्हें जाने दिया । उसके बाद हम शाखा पर लौट आये । कुल मिला कर अच्छा रहा प्रोग्राम ।

           

            दोपहर के वक्त जब मैं घर पर था तब फ़ोन आया कि शाखा पर पुलिस आई थी जो कुछ लड़कों को उठा कर ले गई । पता चला आर्चिज वालों ने कंप्लेंट कर दी थी । मैंने नेताजी को फ़ोन लगाया । उन्होंने मामले को देख लेने का आश्वासन दिया । स्वामी जी के कनेक्शंस इतने ऊँचे थे कि शाम से पहले सारे लड़के अपने घर पर थे ।

           

            भारतीय सभ्यता को बचाने की दिशा में उठाये गए एक ठोस कदम से बहुत आत्म-शान्ति मिली आज ।



24 मार्च 2013  :-  

           

कल भगत सिंह और साथियों का शहादत-दिवस था । शाखा पर मैंने एक छोटा सा प्रोग्राम आयोजित कराया था । स्वामी जी नहीं आ पाए । मैंने ही एक छोटा सा भाषण दिया जिसमे सभ्यता के रक्षण हेतु जरुरी उपायों पर अपनी राय रखी । सारे युवा साथी मेरे भाषण से प्रभावित दिखे । राष्ट्र-निर्माण के लिए इन युवाओं में संयम और आत्मबल होना बेहद जरुरी है । मुझे ख़ुशी है कि कम से कम कुछ युवाओं को तो मैं सही रास्ते पर लाने में सहायक सिद्ध हो रहा हूँ ।



16 अप्रैल 2013 :-  

           

आज घर में कुछ कलह हुई । बड़ा बेटा अवनीश इंग्लैंड जाना चाहता है । जिस अमेरिकन बेस्ड कंपनी में वो काम करता है वो उसे तीन साल के लिए वहां भेजना चाहती है । लन्दन में । जाहिर है मैंने विरोध ही किया । वैसे तो मेरी अवनीश से बातचीत बंद ही है । तब से जब से उसने नंदिता से अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली थी । नंदिता को मैं सख्त नापसंद करता था । ख़ास तौर से उसका शादी के बाद भी जीन्स वगैरह पहनना मुझे करारे तमाचे की तरह प्रतीत होता था । राम शरण दूबे की बहू और इतनी उन्मुक्त ! क्या कहते होंगे लोग !



लेकिन ये मुद्दा गंभीर था । मुझे टोकना ही पड़ा । लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ । उल्टे तल्खियां और बढ़ गई । अवनीश ने दो टूक कह दिया कि उसे जाना ही जाना है और वो नंदिता को भी साथ ले जा रहा है ।



“अरे, विदेशियों के लिए कमाना भी एक तरह से राष्ट्रद्रोह ही है ।” – मैंने आर्तनाद किया ।



“अब यहाँ भी तो उसी कंपनी में काम रहा हूँ बाबू जी, वो क्या है फिर ?” – उसका प्रतिप्रश्न था ।



“कम से कम यहाँ अपने घर तो हो । वहां तो जो कमाओगे, खर्चोगे सब उन्हीं का होगा ।”



“बाबू जी, अब इन दकियानूसी विचारों से बाहर भी निकल आइये आप । दुनिया ग्लोबल परिवार होती जा रही है और आप अभी भी देश-समाज की सीमाओं में अटके पड़े हो । कुछ नहीं रखा इन बातों में ।”



छोटे बेटे मनीष ने भी उसी की तरफदारी की । कहने लगा,



“वसुधैव कुटुम्बकम का नारा भी तो भारतीय संस्कृति की ही देन है न बाबूजी ? फिर आज जब हम भारतीय उसे सत्य के धरातल पर उतारने में सफल हो रहे हैं तो ये रोक टोक क्यों ? देशप्रेम दिखाने के और भी कई तरीके हैं । जो लोग भारत में नौकरी करते हैं लेकिन रिश्वत, दलाली में लिप्त रहते हैं क्या उनके कृत्य राष्ट्र-द्रोह की श्रेणी में नहीं आते ?”



कहते हैं, बच्चे जब बड़े हो जायें तो उनसे बहसबाजी करने से बचना चाहिए । जवान खून आपके किसी भी तर्क से सहमत हो ही नहीं सकता । इन बच्चों से बहस करना उर्जा की हानि समझ कर मैं चुप लगा गया ।



इस तमाम सिलसिले में एक दुखद बात ये भी रही कि वैदेही भी मेरी तरफ होने की जगह अपने बच्चों की तरफ है । कहती है कि जो रास्ता प्रगति की दिशा में ले जाता दिख रहा है उसपर चलने से बच्चों को नहीं रोकना चाहिए ।



समझती नहीं है कि जिसे वो प्रगति समझ रही है असल में वो पतन है ।





24 जून 2013 :-



            कल अवनीश चला गया । घर में उदासी छाई हुई है । जाने से पहले वो और नंदिता मेरे कमरे में आये थे । कहने लगे बाबूजी अगर हम लोगों ने आपका दिल दुखाया हो तो हमें माफ़ कर दीजिये । हम कुछ गलत नहीं कर रहे और ना ही करेंगे इसका भरोसा रखिये । नंदिता कहने लगी कि घर का बुजुर्ग नाराज़ हो तो सारे उत्साह पर पानी फिर जाता है । हमें ख़ुशी ख़ुशी विदा करेंगे तो हमें वहां रह कर कोई अपराधबोध नहीं सतायेगा । वरना हम इसी बात से दुखी रहा करेंगे कि हमारे बाबूजी हम से नाराज़ हैं ।



            मेरा भी दिल भर आया । मैंने अवनीश को गले से लगा लिया । नंदिता के सर पे – पहली बार – प्यार से हाथ फेरा । यूँ लगा जैसे किसी जमी हुई झील की सतह से बर्फ टूट कर पिघल गई हो और अंदर का साफ़ पानी चमक रहा हो । वैदेही और मनीष भी खुश हो गए । फिर उनको दिल्ली एयरपोर्ट छोड़ने मनीष के साथ मैं और वैदेही भी गए । देर रात को लौटे ।



            एयरपोर्ट पर अलग होते समय अवनीश और नंदिता ने ये वादा करवा लिया कि मैं उनसे मिलने लन्दन जरुर आऊंगा । मैंने हामी भर तो दी लेकिन मेरा कतई मन नहीं है ।



            मैं नहीं जाने वाला फिरंगियों के देश ।




 17 जुलाई 2013 :-


            आज मनीष भी मुंबई चला गया । उसे भी एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब मिली है । कह रहा था बहुत अच्छा स्टार्ट है । पे स्केल शानदार है । एकाध साल बाद दिल्ली ट्रान्सफर करा लेगा । रोकने का कोई फायदा नहीं था । ये पीढ़ी अपने बुजुर्गों की बात मानने वाली नहीं है । मन मार कर उसे भी विदा किया । कितनी विडम्बना है कि स्वदेशी का आग्रह करते एक व्यक्ति की खुद की संतानें विदेशी कंपनियों के लिए काम करे ! लेकिन संसार में सब कुछ मनचाहा भी तो नहीं हो सकता । आप पूरे समाज से लड़ सकते हो लेकिन अपने परिवार से नहीं लड़ सकते । बड़े बड़े विचारकों, समाज-सुधारकों की यही विडम्बना रही है । गांधी भी इसका अपवाद नहीं थे । इंसान हारता आखिर अपनों से ही है ।



            अब घर में मैं और वैदेही दोनों ही बचे है । अब बुढापे में करने के लिए भी कुछ नहीं होता । वैदेही तो अपने महिला-मंडल में व्यस्तता ढूंढ लेती है । मुझे समझ नहीं आता समय कैसे बिताऊं ? शाखा को ही वक्त देना होगा ज्यादा ।





15 अगस्त 2013 :-



            आज का दिन हमेशा से मेरे लिए स्पेशल हुआ करता है । सुबह सात बजे शाखा पर तिरंगा फहराया । बच्चों में मिठाईयां बांटीं । उसके बाद सिटी हॉस्पिटल में जा कर कुछ मरीजों को फल वितरित किये । एक रक्तदान-शिविर का आयोजन किया था आज के दिन । उसे कामयाबी से संपन्न कराया । ऐसे काम करने पर जो आत्मिक संतुष्टि मिलती है उसका कोई मुकाबला नहीं । हजारों क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान देकर भारत भूमि को अंग्रजों के चंगुल से छुडवाया था । हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाने की ईमानदार कोशिश करें ।



            रक्तदान शिविर में आज मुश्ताक भी मिल गया । मेरे बालसखा रहमान का बेटा । वो भी खून देने आया था । उसका बाप और मैं बचपन में कुछ साल एक ही मदरसे में पढ़े थे । गाँव में प्राथमिक शिक्षा का जरिया मात्र मदरसा ही था । मौलवी उबैदुल्लाह द्वारा पढ़ाई गई कई बातें आज भी याद हैं । मदरसे की पढ़ाई का ही परिणाम है कि मेरी बोलचाल में उर्दू शब्द यूँ घुल-मिल गए हैं जैसे हिंदी का ही हिस्सा हो । मुश्ताक ने बताया कि मौलवी साहब अब नहीं रहे । पिछले साल उनका देहांत हो गया । बहुत दुःख हुआ जान कर । उनसे, रहमान से, अपने गाँव से जुडी न जाने कितनी यादें ताज़ा हो गई । मुश्ताक ने बताया कि वो अब गाँव में ही एक मेडिकल स्टोर चलाता है । अच्छी आमदनी हो जाती है । उसके पिता अब बीमार रहने लगे हैं । मुझे याद करते रहते हैं । मैंने उससे वादा किया कि बहुत जल्द मैं रहमान से मिलने जरुर जाऊँगा ।





19 सितम्बर 2013 :-



            आज शहर में दंगा भड़क गया । किसी मामूली से विवाद से उपजे घटनाक्रम ने दो समुदायों के बीच के हिंसक सघर्ष का रूप ले लिया । कल शाम से ही हालात खराब होने की ख़बरें आ रही थी । आज सुबह जैसे विस्फोट हो गया । आगजनी, मार-काट का बोलबाला था चारों तरफ । मैं सुबह ही शाखा पर पहुँच गया था । लडके उत्तेजित थे । उन पर काबू करना बेहद जरुरी था । मैंने आनन-फानन उन्हें एकत्रित किया । समझाया कि तनाव की इस घडी में ऐसी कोई भी हरकत नहीं करनी है जिससे पहले से बिगड़े हालात और भी खराब हो जायें । कुछ एक लड़के विद्रोही स्वर में पूछने लगे कि भले ही वो लोग हमारे कितने ही आदमी मार दे ? मैंने समझाया कि इसे ‘हम लोग’ और ‘वो लोग’ जैसे बाँट कर मत देखो । ये हमारे शहर पर छाया संकट है जिससे मिलजुल कर निपटना है । हमें लोगों की मदद करनी है बिना उनका धर्म जाने । कौन दोषी था इसका फैसला बाद में होता रहेगा । फिलहाल हमें इस समस्या को और नहीं बिगाड़ना है ।

           

            लडकें शांत तो हो गए लेकिन पता नहीं क्यूँ मुझे लग रहा था वो अन्दर अन्दर मुझ से नाखुश थे । खैर, बात आई गई हो गई । बाद में अमित ने मुझे बताया कि कुछ लडकें स्वामी जी के संपर्क में थे और उन्होंने उन्हें अपने हिसाब से निपटने की छूट दे रखी थी । ये तक बोला था कि पुलिस की चिंता मत करना मैं देख लूँगा ।



            आज पहली बार मेरा स्वामी जी के ऊपर का विश्वास डगमगाया ।





22 सितम्बर 2013 :-



            दंगा अब काबू में है । हालांकि अब भी पुलिस, पीएसी कई इलाकों में डेरा डाले बैठी है लेकिन स्थिति तेज़ी से सामान्य हो रही है । पिछले तीन दिन बहुत बुरे रहे । लेकिन मेरे व्यक्तिगत जीवन में कुछ अच्छा भी घटित हुआ । मेरे दोनों बेटे और नंदिता मुझे बार बार फ़ोन कर के कुशल-क्षेम पूछते रहे । हर दो घंटे में किसी न किसी का फ़ोन आ जाता । बेहद चिंतित थे वो सब । दिल के किसी कोने में ये सुखद एहसास हुआ कि हम बूढ़े इन बच्चों के लिए महज एक पुराना सामान ही नहीं है । इन्हें हमारी परवाह है । इन्हें प्रेम है हम से । उद्दंड, गैर-जिम्मेदार और स्वार्थी होने का लेबल हम बूढ़े इन बच्चों पर यूँ ही लगा दिया करते हैं । जब की हकीकत में इन बच्चों का महज इतना सा दोष है कि ये अलग तरह से सोचते हैं । इनकी और हमारी प्राथमिकताएं अलग हैं बस । अगर इन प्राथमिकताओं के बीच समन्वय साधा जाए तो रिश्ते निभाना इतना भी कठिन नहीं है । युवा पीढ़ी के लिए मेरी राय तेज़ी से बदल रही है ।



            एक और बात भी हुई इस सारे दंगा-पुराण से । स्वामी जी के लिए मेरी श्रद्धा में भारी कमी आई है । सुनने में आया है कि स्वामी जी ने कुछ दंगाइयों को ना सिर्फ शरण दी बल्कि हरसंभव मदद भी की । पुलिस से भी बचाया । पता नहीं किस मुंह से स्वामी जी खुद को देशभक्त कह पायेंगे !





17 अक्टूबर 2013 :-



            आज अवनीश का फ़ोन आया था । रहने के लिए बुला रहा है । नंदिता और वो दोनों ही जोर देते रहें कि हम एकाध महिना उनके यहाँ जरुर बिताएं । इधर वैदेही भी कुछ दिनों से यही बात कहा करती है । सच भी तो है । तकरीबन चार महीने हो गए बच्चों से बिछड़े हुए । और अब तो उनका बाप उतना सख्त भी नहीं रहा जितना कभी हुआ करता था । तो क्या चला जाऊं ? वैदेही और बच्चों का मन देखते हुए जाना तो चाहिए । मैं पसंद तो नहीं करता विदेश जाना लेकिन बच्चों से मिलने का मेरा भी मन है ।



            देखते हैं क्या होता है ।



14 नवम्बर 2013 :-



             हीथ्रो एयरपोर्ट । दुनिया के चुनिन्दा विशाल एयरपोर्ट्स में से एक । जब हमारा हवाई जहाज वहां उतरा तो मेरी तो आँखें चुंधिया गई । इतना ऐश्वर्य ! ये सब उपनिवेशों से लूटा हुआ माल है । ख़ास तौर से भारत जैसे देश से । अवनीश को कंपनी की तरफ से सेवेंथ एवेन्यू में एक अपार्टमेंट मिला हुआ है । एयरपोर्ट से आधे घंटे की दूरी पर । कार से सफ़र करते वक्त हुए लन्दन शहर की पहली झलक निश्चित रूप से मनोहारी थी । साफ़-सुथरा, खूबसूरत शहर । ऊँची ऊँची इमारतें, चौड़ी सड़कें, बेहतरीन ट्रैफिक व्यवस्था । अच्छा लगा ।



            बच्चे पूरी तरह से सेट हो चुके हैं अब । दिल भी लग गया है उनका । अवनीश और मेरे बीच हमेशा रहता आया तनाव काफी कम हो चुका है अब । पहली रात डिनर के बाद हम बाप-बेटों में खूब बातें हुई । मुझसे मजाक में कहने लगा कि अब फिरंगियों के देश आप आ ही गए हैं तो इनका रहन-सहन भी देख लीजियेगा । फिर आप तुलनात्मक रूप से कुछ कहने में ज्यादा सक्षम होंगे । बात तो सही है । देखें तो सही वो पश्चिमी सभ्यता है कैसी जिसकी वजह से पूर्वी दुनिया में उथल-पुथल मची रहती है ।



            महीने भर रहने का इरादा है यहाँ । इस देश को करीब से जानने के लिए काफी होना चाहिए ।





20 नवम्बर 2013 :-



            आज अवनीश की पड़ोसन से – नेक्स्ट डोर नेबर से – मुलाक़ात हुई । डॉ. कैथरीन ब्राउन नाम था उस महिला का जो रेडक्रॉस संस्था के लिए काम करती है । संक्षेप में कैथी । कैथी अपने काम के सिलसिले में चार साल दिल्ली रह चुकी है इसलिए ठीक-ठाक हिंदी बोल लेती है । हम से बड़ी गर्मजोशी से मिली । तकरीबन पैंतीस साल की उत्साही महिला । भारत के लिए काफी सम्मान था उसके मन में । तेईस साल की उम्र से कैथी रेडक्रॉस के लिए काम कर रही है । इस सिलसिले में पूरी दुनिया घूमी है । अब जा कर उसने अपने एक सहकर्मी से शादी की है । बातों बातों में उसने बताया कि वो प्रेग्नेंट है । वैदेही ने खालिस भारतीय मानसिकता से कह दिया कि ईश्वर करे पहला बेटा ही हो । चार साल भारत में रह कर आई कैथी हैरान तो नहीं हुई लेकिन उसने फ़ौरन इस बात को रद्द कर दिया । कहने लगी,



            “हमको बेटी चाहिए ।”



            “क्यूँ ? बेटा पसंद नहीं ?”



            No, no.  Not like that.  I just love girls.  छोटी सी एंजल ।”



            “फिर उसके बाद बेटा ?” – वैदेही ने उत्सुकता से पूछा ।



            “नो । मेरे को दो गर्ल चाइल्ड चाहिए बस । वैसे भी गर्ल और बॉय में कोई फर्क नहीं होता । सब सेम । मैं अपना लड़की को पायलट बनाना मांगता है ।”



            मेरी आँखों के सामने अखबार में पढ़े वो आंकडें घूम गए जो भारत में कन्या-भ्रूण-हत्या की विदारक तस्वीर पेश करते हैं । लड़के को ट्रॉफी और लड़की को जिम्मेदारी समझने वाली हमारी मानसिकता पहली बार सवालों के घेरे में खड़ी होती नज़र आई मुझे । मैंने पश्चिमी सभ्यता की प्रतीक उस महिला को एक नये सम्मान से देखा । स्त्री को देवी मानने वाले मेरे देश में स्त्री की रोजाना होती अवहेलना मेरी आँखों के आगे लहरा गई और विलासिता का प्रतीक समझे जाने वाले देश की एक महिला मुझे बेहद ऊँची नज़र आने लगी ।



            रात को डिनर के बाद जब हम सब गप्पे मारने बैठे तो कैथी का विषय फिर से निकला । अवनीश ने बताया कि कैथी सेल्फ-मेड है । बचपन में माता-पिता की मौत के बाद एक अनाथालय में पली-बढ़ी । पढने में ज़हीन थी । स्कालरशिप्स के सहारे उसने अपनी पढ़ाई पूरी की । पायलट बनना चाहती थी । मेडिकल टेस्ट में फेल होने के बाद रेडक्रॉस ज्वाइन कर ली । ढेर सारा सार्थक काम किया । मेरे लिए ये सफ़र हैरान करने वाला था । एक अनाथ, बेसहारा लड़की का यूँ खुद के पैरों पर खड़ा होना अपने आप में एक मिसाल था । भारत में तो ऐसी किसी लड़की का सुरक्षित रह पाना ही गंभीर मसला होता, यूँ कोई उपलब्धि हासिल करना तो दूर की बात है । अवनीश ने बताया कि यहाँ कैथी की कहानी इतनी अनोखी नहीं है ।



“कैथी ये सब कर सकी” – अवनीश बोला – “क्यूँ कि यहाँ का समाज किसी भी इंडिविजुअल को पनपने के समान मौके देता है बाबूजी । बिना इस बात का फर्क किये कि आप महिला हो या पुरुष । अगर आप काबिल हैं तो अपना मुकाम हासिल करने में आपको कोई ख़ास दिक्कत नहीं पेश आयेगी । ये देश किस्मत में नहीं काबिलियत में भरोसा रखता है । गले में ताबीज़ और उँगलियों में अंगूठियाँ पहन कर तरक्की की उम्मीद नहीं करते यहाँ के लोग । ये तो मेहनत में यकीन रखते हैं । हफ्ते के पांच दिन जम के काम करते हैं । फिर दो दिन अपने लिए जीते हैं । इनका फंडा क्लियर है । अपने काम, अपने पेशे के प्रति इनकी ईमानदारी काबिले तारीफ़ है ।”



“कोई भी समाज, कोई भी देश परफेक्ट नहीं होता बाबूजी ।” – नंदिता कहने लगी । – “कमियां यहाँ भी हैं । लेकिन खूबियाँ ज्यादा है । जिन चीजों का हमारे देश में हौवा बनाया जाता हैं उनसे ये लोग बेहद शालीनता से डील करते हैं । जैसे हमारे यहाँ प्रेम-प्रसंग खानदान की आन-बान में बट्टा लगाने वाले समझे जाते हैं । लेकिन यहाँ एक सामान्य नैसर्गिक गतिविधि समझा जाता है बस । लड़की का बॉयफ्रेंड होना परिवार की इज्जत से जुड़ा हुआ मसला हरगिज़ नहीं होता । हर बालिग़ को अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार है और उस अधिकार का संरक्षण यहाँ का कानून पूरी जिम्मेदारी से करता है । हाँ, टकराव यहाँ भी होते हैं बच्चों और अभिभावकों में लेकिन वो पसंद-नापसंद से जुड़े होते हैं ना कि इज्ज़त-आबरू से ।”



“तुम लोगों का मतलब है जो उन्मुक्तता यहाँ व्याप्त है उसे अपना लेना चाहिए ? घर की बेटियाँ हर ऐरे-गैरे का हाथ पकड़ कर घूमती रहे ?” – मैंने किंचित रोष से कहा ।



“बस यही तो मानसिकता है बाबूजी जो हमें सारी ज़िन्दगी इज्ज़त-आबरू जैसे बेकार के मुद्दों में उलझाए रखती है और जिसकी वजह से हमें और कामों के लिए वक्त ही नहीं मिलता । अब आप को ही देख लीजिये । आपने कितनी आसानी से ‘घर की बेटियों’ के लिए सवाल खड़ा कर दिया, तो क्या आपकी सभ्यता में घर के बेटों के लिए ये सब कुछ जायज है ? गड़बड़ सभ्यता में नहीं सोच में है बाबूजी । जब मैंने नंदिता से शादी की थी तब का आपका बर्ताव याद करता हूँ तो अब भी दिल दुखता है । नंदिता में कोई भी कमी ना होने के बावजूद ये आज तक खुद में ये आत्मविश्वास नहीं पैदा कर पाई कि हमारे परिवार की किसी गतिविधि में हक़ से हिस्सा ले सके । अपनी बहू-बेटियों का मनोबल तो हम खुद ही गिराये रखते हैं तो कैसे पनपेंगी वो ? क्या हमें सच में ये सोचने की जरुरत नहीं है कि बेटियाँ भी एक स्वतंत्र मानव हैं और उन्हें भी पूरा पूरा हक़ है अपनी ज़िन्दगी जीने का । सुरक्षा के नाम पर उन्हें तालों में बंद किये रहते हैं हम । बहुत अफ़सोस होता है ।” – अवनीश की आवाज़ में उत्तेजना साफ़ झलक रही थी ।



“तो क्या बेटियों की सुरक्षा की चिंता करना भी उन पर जुल्म ढाना है ?” – मैंने सवाल दागा.



“हम उनकी सुरक्षा के लिए चिंतित होने की बजाय...” –  अवनीश ने आवेश में कहना शुरू किया – “उन्हें आत्मनिर्भर बनाएं तो कैसा रहे ? हम ऐसे समाज के निर्माण के लिए प्रयत्न करे जिसमे बेटियों के लिए असुरक्षा का माहौल ही ना हो तो कैसा रहे ? क्या ये ज्यादा सार्थक नहीं रहेगा ? स्कर्ट पहनी लड़की जब भारत के बड़े बड़े शहरों में भी सड़क पर गुजरती है तो न जाने कितनी निगाहें उसे आँखों ही आँखों में हज़म करना चाहती है । चरित्र की महत्ता का दिन-रात गुणगान करने वाली हमारी सभ्यता को ये सब देख कर लज्जा नहीं आती ? क्या इस लम्पट राष्ट्रीय चरित्र को एक समस्या मानने की और इसके निर्मूलन के लिए कदम उठाने की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं ? यहाँ लडकियां दिन और रात दोनों शिफ्ट में काम करती हैं । रात को दो दो बजे घर लौटती है । पूरी तरह बेख़ौफ़ हो कर । उन्हें ये चिंता नहीं होती कि अगले ही मोड़ पर कोई कुंठित आदमी उस पर झपटने के लिए तैयार बैठा हो सकता है । हमारे यहाँ तो कोई निर्भया दिल्ली जैसे शहर में रात के साढ़े नौ बजे भी सुरक्षित नहीं रह पाई ।”



“लेकिन यहाँ के लाइफ-स्टाइल ने संयुक्त परिवार को जड़ से ख़त्म कर दिया है इसे क्या कहोगे तुम ? यहाँ तो जवान होते ही बाप बेटे को घर से निकाल देता है कि अपना खुद देखो । पारिवारिक रिश्तों की गर्माहट कहाँ बची है यहाँ ?” – मैंने नई आपत्ति पेश की ।



अवनीश मुस्कुराया । कहने लगा, “हाँ तो बुराई क्या है इसमें ? क्या आप चाहते हैं कि यहाँ का युवा भी बैसाखियों के सहारे खड़ा होने के लिए अभिशप्त रहे जैसा हम भारतीयों में होता आया है । हमारे यहाँ स्कूल कॉलेज में कौन से सब्जेक्ट लेने हैं इस बात से ले कर जीवनसाथी के चुनाव तक हर चीज़ में अभिभावक दखल देते हैं । उसे खुद की बुद्धि इस्तेमाल करने ही नहीं देते । और जब वो किसी भी फ्रंट पर नाकाम हो जाता है तो सारा दोष उसी के सर मंढ कर अलग हो जाते हैं । इसके उलट यहाँ करियर के चुनाव से ले कर ज़िन्दगी के बड़े से बड़े फैसले तक में उनकी रजामंदी शामिल होती है । जब हमारे यहाँ बच्चे अपने माँ-बाप की पसंद से पतलून और जूते खरीद रहे होते हैं तब यहाँ के बच्चे ये तय कर रहे होते हैं कि उन्हें बड़ा हो कर क्या बनना है और उसके लिए क्या क्या किया जाना जरुरी है । हम अपने बच्चों को खुद के दिमाग से सोचने की मोहलत ही नहीं देते । बरसों उन पर अपने फैसले लादते रहते हैं और फिर एक दिन अचानक एक अदद बीवी पकड़ा कर कहते हैं कि अब परिवार चलाओ । हकबकाया, निर्णय लेने की क्षमता से अपिरिचित युवा दिग्भ्रमित ना हो तो और क्या हो ? इसी से आगे चल कर वो एक असंतुष्ट और तानाशाही पुरुष में बदल जाता है जो बीवी पर हक़ जमाने और बच्चों को धमका कर रखने को अपने जीवन की इतिश्री मानता है ।”



“यहाँ का युवा” – अवनीश ने कहना जारी रखा – “कम उम्र में ही आत्मनिर्भर हो जाता है । यहाँ का परिवेश उसे मजबूर करता है इस बात पर कि वो अपने जीवन की इबारत खुद लिखे । क्या ये ज्यादा बेहतर व्यवस्था नहीं ? दूसरी बात, यहाँ के लोगों का बुढ़ापा भी बच्चों के रहमो करम का मोहताज नहीं । अपना वार्धक्य-काल खुद डिजाइन करते हैं ये लोग जिससे बुढापे में किसी के आगे हाथ ना फैलाने पड़े । भारतीय परिवारों के वो दृश्य याद कीजिये जिनमे बूढ़े माँ-बाप अपनी औलादों की ज्यादतियां महज़ इसलिए बर्दाश्त करते रहते हैं क्यूँ कि उनके पास और कोई ठिकाना नहीं । क्या ये सही लगता है आपको ? अच्छी जगह निवेश, बीमा पॉलिसीज आदि आदि के सहारे ये लोग अपने जीवन के अंतिम क्षण तक शान से और सम्मान से जीते हैं । कितने प्रतिशत भारतीयों के हिस्से आती है ऐसी ज़िन्दगी ? आप एक बात बताइये, भारत में कितने लोग मेडिकल बीमे की अहमियत जानते हैं ? कितने लोगों का जीवन बीमा है ? हम हर महीने मजारों पर हज़ार रुपये की चादर चढ़ा सकते हैं, बाबाओं को सैंकड़ों रुपयों का चढ़ावा चढ़ा कर अपने और परिवार के स्वास्थ्य के लिए दुआएं मांग सकते हैं लेकिन बीमा करवाकर उसकी किश्त नहीं भर सकते । मेडिक्लेम के सहारे बुरे वक्त से लड़ने के लिए खुद को तैयार नहीं कर सकते । कितना कुछ है जो हमें अभी सीखना है बाबूजी ।”



सच ही कह रहा था अवनीश । सच में ही कितना कुछ है जो अभी समझना है हमें । अवनीश की बातें सुन कर मैं चुप लगा गया था लेकिन मेरे अंतर्मन का एक हिस्सा उससे बुरी तरह सहमत हुआ है । उसकी बातों में दम है । अवनीश के तीखे सवालों के रूप में आज मेरे सामने वो आईना आया है जिसके रूबरू होना हमारी सबसे बड़ी जरुरत है ।



धारणाएं टूटने लगी हैं । नये नज़रिये से मुठभेड़ हो रही है । अन्दर कुछ बदल सा रहा है ।





27 दिसंबर 2013 :-



            पिछले एक महीने में बहुत घूमा । पूरा लन्दन शहर और आस पास के इलाके देख लिए । तरह तरह के लोगों से मिला । उनसे दिल खोल के बातें की । और........और बहुत कुछ सीखा । मैं मानता हूँ कि पचास की उम्र कुछ सीखने के लिहाज से थोड़ी ज्यादा ही है लेकिन वो फिरंगी कहावत है न कि ‘It’s never too late.इस देश के एक ख़ास शहर में बिताये कुछ दिन मुझे इस बात का एहसास करा गये कि क्यूँ ये लोग विकास के पथ पर इतने आगे हैं ।



            हम भारतीय हमें बुरी लगने वाली हर चीज़ को पश्चिमी सभ्यता के माथे थोप कर अलग हो जाते हैं । लेकिन इसी सभ्यता में जीते बाशिंदों द्वारा दुनिया पर किये गए अनेकानेक उपकार बड़ी सफाई से नज़र-अंदाज़ कर जाते हैं । किसी का पहनावा या जीवनशैली आपको पसंद ना हो ये अलग बात है लेकिन उसी की बिना पर एक पूरे समाज का मूल्यांकन करना बेहद क्रूर हरकत है । इन लोगों ने मानव जाति के लिए हितकर ढेरों अविष्कार किये हैं । अपने काम के प्रति इन लोगों का समर्पण अद्भुत है । ये एक जागरूक और ईमानदार लोगों का समूह है । जाहिर है अच्छे-बुरे लोग हर जगह होते हैं लेकिन बुनियादी तौर पर ये लोग विवेकशील एवं कर्त्तव्यपरायण हैं । प्रकृति से, प्राणियों से इनका प्रेम तारीफ़ के काबिल है । कुत्ते, बिल्लियां और अन्य प्राणियों को इनके द्वारा अपनी औलाद जितना प्रेम करना दर्शाता है कि ये लोग कितने संवेदनशील हैं । हमारे यहाँ माता कहलाई जाने वाली गाय सड़कों पर आवारा घूमती और प्लास्टिक खा कर मरती आम देखी जा सकती है ।



            इन लोगों की राजनैतिक समझ भी अच्छी है । ये लोग अपने वोट की कीमत पहचानते हैं और उसे इस्तेमाल भी करते हैं । अपना वोट जाति, धर्म या बिरादरी देख कर देने का भारतीय सिस्टम यहाँ बिलकुल नदारद है । हमारे यहाँ चुनावों में कैसा सर्कस होता है ये हम सभी जानते हैं । यहाँ विशुद्ध सामाजिक मुद्दों पर चुनाव लड़ा जाता है और जनता का पूरा पूरा पार्टिसिपेशन रहता है इस प्रक्रिया में । सुना है यहाँ एक जगह है जहाँ खड़े हो कर आप सरकार के खिलाफ जो चाहे बोल सकते हैं । पब्लिकली । आप जैसे मर्जी अपनी भड़ास निकाल सकते हैं । फ्रीडम ऑफ़ स्पीच का ऐसा उदाहरण क्या भारत में देखा जा सकता है ? नेताजी तो एक्शन लेते लेते लेंगे, उससे पहले उनके गुर्गे ही आपको वो मज़ा चखायेंगे कि आपकी पीढियां याद रखेंगी ।



            इन लोगों का सफाई के प्रति कर्त्तव्यबोध भी अनुकरणीय है । यहाँ कूड़ा रास्ते पर फेंकना असभ्यता की निशानी माना जाता है । इन लोगों का दिमाग इस तरह से कंडीशंड है कि कचरा डस्टबिन में ही डालते हैं भले ही फिर डस्टबिन को खोजना पड़े । लाखों लोगों की रिहायश वाले इतने बड़े शहर में गन्दगी नाम को भी नज़र नहीं आई कहीं । अपने शहर को साफ़ रखना इनकी आदत में शामिल है । एक सिस्टम बना हुआ है जिसे हर नागरिक जिम्मेदारी से फॉलो करता है जगह जगह टॉयलेट्स बने हुए है जिससे दीवारें रंगने का खालिस भारतीय दृश्य गलती से भी नहीं दिखाई देता । अगर कहीं आपको टॉयलेट ना मिले तो आप करीब के किसी भी घर की घंटी बेझिझक बजा कर उनका टॉयलेट इस्तेमाल कर सकते हैं । बिल्कुल सामान्य बात है ये यहाँ । हमारे यहाँ इस तरह की सोच डेवलप होने में अभी पता नहीं कितनी सदियाँ लगेंगी ।



ट्रैफिक नियमों के पालन में भी यहाँ की जनता हम भारतीयों से मीलों आगे है । लाल बत्ती पर गाडी रोकनी ही रोकनी है भले ही रात के बारह बजे हो और सड़क खाली हो । हमारे यहाँ तो दिन-दहाड़े ट्रैफिक पुलिस की नाक के नीचे से रेड-लाइट जम्प करने को शान समझा जाता है । ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन को अपराध मानने की परंपरा ही नहीं है हमारे यहाँ । लाल-बत्ती पर ना रुकना, गलत लेन में गाडी चलाना, तय स्पीड से ज्यादा तेज़ गाडी चलाना आदि आदि तो नार्मल चीजें है हमारे लिए । अव्वल तो कुछ होता नहीं और हो भी गया तो हवलदार सौ के पत्ते में मान जाता है । ऊपर से नीचे तक करप्शन के चंगुल में फंस चुकी मशीनरी और इस प्रथा को बढ़ावा देने वाली हमारी जनता से ट्रैफिक सेंस जैसी मामूली चीज़ की अपेक्षा करना भी गुनाह है ।



            सच में बहुत कुछ ऐसा है जो अभी सीखना है हमें । हम ‘अपनी सभ्यता’ और ‘उनके संस्कार’ जैसे लेबल लगा कर चीज़ों को देखते हैं । फिर खुद पर इतराते है और उन्हें रद्द कर देते हैं । कुछ नया सीखने की ना तो हमें लालसा है और ना ही हम जरुरत महसूस करते हैं । ऐसे हालातों में अगर हम वैश्विक पटल पर पिछड़ रहे हैं तो क्या हैरानी है ? कोई भी व्यवस्था परफेक्ट नहीं होती । गुण-दोष हर जगह होते हैं । उनमे भी हैं । हममें भी । अगर हम अपने दोषों को सुधारने का संकल्प ले और उनके गुणों को अपना ले तो कितना बेहतर होगा हमारे लिए ! कितना कुछ हम में है जो सुधारा जा सकता है, कितना कुछ उनमे है जो अपनाया जा सकता है । सारा संसार अगर अच्छे गुणों का फ्लैग बियरर बने तो क्या हर्ज़ है ? आखिर सभ्यताएं मानव जाति के काम आने के लिए ही तो है !

           

दो दिन बाद वापसी की फ्लाइट है । एक पूर्वाग्रह लेकर आया था यहाँ । एक उदार दृष्टिकोण लेकर लौट रहा हूँ । और ये सीख कर लौट रहा हूँ कि कुछ अच्छा ग्रहण करने से सभ्यताएं ना तो दूषित होती हैं और ना ही नष्ट होती हैं, बल्कि और फलती फूलती ही हैं ।



1 जनवरी 2014 :-



            दो दिन हुए भारत लौटे हुए । आते ही जो पहला काम किया वो ये कि शाखा से इस्तीफा दे दिया । लड़कों ने बहुत पूछा लेकिन मैंने कुछ बताना या समझाना जरुरी नहीं समझा । आज नये साल का पहला दिन है । कल रात भी हर साल की तरह हंगामा रहा । तनाव-भरी ज़िन्दगी जीती ये नई पीढ़ी खुशियों के जो पल नसीब होते हैं उन्हें भरपूर अंदाज़ में जी लेती है । जब तक इससे किसी का अनिष्ट नहीं होता खुशियाँ मनाने में क्या बुराई है !



मैंने मोबाइल उठाया और शुक्ला का नंबर मिलाया । उधर से फ़ोन उठाते ही मैं बुलंद आवाज़ में बोला,



“हेल्लो शुक्ला, हैप्पी न्यू ईयर ।”





~~~~~~~~~~~ समाप्त ~~~~~~~~~~~~~~~



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ज़ारा खान.

24/11/2014.