Saturday, November 8, 2014

अगर मैं चीखूँ

अगर मैं चीखूँ
 

=================

अगर मैं चीखूँ
 

मैं अपने दिल की तमाम तन्हाइयों से चीखूँ
तो कायनाती निजाम में क्या फर्क पड़ेगा ?
 

यही कि
अंधे कुएं से इक बाज़-गश्त होगी
कहेगी,
क्यूँ तुम को क्या हुआ है ?
तुम्हीं बड़ी आई हो कहीं की
 

ये आसमान-ओ-ज़मीं
ये सूरज, ये चाँद सितारें
तुम्हारे माँ बाप, सारे अज़दाद
शहर के सब शरीफजादे
इन्हें भी देखो
 

ये सब मुसीबत-जदा, मतानत से
बुर्द-बारी में सह रहे हैं
तुम्हीं में बर्दाश्त की कमी है


अगर मैं चीखूँ तो
मेरी आवाज़ भी मलामत करेगी मुझ को


वो सब कहेंगे
कि कौन ये शोर कर रहा है
हमारी नींदें उचाट कर दीं
 

अगर मैं चीखूँ
तो सारा अम्न-ओ-सुकून
नज़्म और नुस्क़
मुझ को खिलाफ-ए-क़ानून दुश्मन-ए-खल्क कह कर
सलीब देगा
 

मगर ये चीख़ों भरा दिल
किसी भी लम्हें
मुझे कहीं खौफनाक राहों पे डाल देगा
सलाह देगा
कि जोर से चीखो
 

कि जिस्म के साथ
रूह भी सर्द हो गई फिर
तो क्या करोगी ?????


 ----------- अज्ञात.

No comments:

Post a Comment