Wednesday, January 29, 2014

मांग रहा है

लहू लहू सी चश्म-ए-नम में ख्वाब मांग रहा है
ये मेरा दिल भी मुसलसल अज़ाब मांग रहा है
हमारे आँचल में टंके हैं कांटे सितारों की जगह,
मेरा अंजान हमसफ़र मुझसे गुलाब मांग रहा है

तमाम उम्र तुझे शर्मसार होने न दिया कभी,
मेरे ज़मीर तू मुझसे क्या जवाब मांग रहा है
वो देख हंस रहे है सब तेरी नादानी पर,
गुनाह कर रहा है और सवाब मांग रहा है
हमारा वरक़ वरक़ पोशीदा है हर ईक निगाह से,
और तू है के पढने सारी किताब मांग रहा है
वो लम्हे, जो उतरे थे मुस्कान की वजह बनकर,
उन्हीं लम्हों का ज़माना हिसाब मांग रहा है
लौटा है वो तक़रीर कर के औरत की आज़ादी पर,
बीवी के लिए अपनी सियाह हिजाब मांग रहा है
बिदाई बेटी की थका गई है उसका बदन,
वो थकन मिटाने कमसीन शबाब मांग रहा है
जो मांगता वो मेरी जां, इन्कार न करती मैं 'ज़ारा',
मगर वो मेरी सोच, मेरे ख्वाब मांग रहा है
------- ज़ारा.
29/01/2014.

No comments:

Post a Comment