Wednesday, October 22, 2014

उज्ज्वल के लिए

कामयाबी दो तरीकों से मिलती है. एक तरीका तो सीधा सादा है. आपके पास अपने ध्येय को हासिल करने के तमाम जरुरी संसाधन उपलब्ध हो, कामयाबी के लिए जरुरी मौके हासिल हो तो आपको कामयाबी मिलनी ही मिलनी है. दूसरा तरीका थोडा टेढ़ा है. संसाधनों के नाम पर आपके पास ज्यादा कुछ होता नहीं, मौके का इंतज़ार करना वक्तखाऊ काम लगता है तो ऐसे में बंदा जो उपलब्ध है उन्हीं को सहेज कर अपनी राह पर चल पड़ता है. जो कुछ आता है उसे पेश करने के मौके खुद बना लेता है. ऐसे ही एक बन्दे को मैं जाती तौर से जानती हूँ. वो है अपने Prem Prakash दद्दा के होनहार सुपुत्र Ujjwal Pandey...

उज्ज्वल की फिल्म मेकिंग में गहरी दिलचस्पी है. इसी दिलचस्पी और लगन का नतीजा है कि आज यूट्यूब पर उज्ज्वल पाण्डेय टाइप करने पर हासिल रिजल्ट्स में उनकी बनाई ढेरों शोर्ट फ़िल्में नज़र आती हैं. अलग अलग विषयों पर बनाई गई ये फ़िल्में और डॉक्यूमेंट्रीज अच्छी तो हैं ही साथ ही ये इस बात की तरफ एक सुखद इशारा है कि आज की युवा पीढ़ी उतनी भी गैरजिम्मेदार नहीं जितना उन्हें समझा जाता है. उज्ज्वल ने अपनी फिल्मों के लिए जो विषय चुने हैं उससे साफ़ जाहिर है कि ये युवा वर्ग अपने समाज पर पैनी नज़र तो रखता ही है और उसके लिए चिंतित भी है. 'होल इन सोल' फिल्म में ये दिखाते हैं कि कैसे राजनीति अपने फायदे के लिए दो समुदायों के बीच की खाई को और चौड़ा करने का काम करती है और पहले से स्थापित सहज स्वाभाविक भाईचारे की जड़ों पर वार करती है. 'कॉलेज के बाद क्या' में ये उस युनिवर्सल प्रश्न का उत्तर पाने की जद्दोजहद करते हैं जिससे हर कॉलेज गोइंग युवा परेशान रहता है. लेकिन मेरी सब से फेवरेट है डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'पिलग्रिम्स-एक यात्रा'. बहुत ही उम्दा. कैसे एक शख्स ने कुछ किताबों के सहारे एक बुक डेपो खोला और आगे अपनी ज़िन्दगी के कीमती तीस साल लगाकर उसे एक बहुमूल्य खजाने में बदल दिया. और फिर कैसे कुदरत के एक ही क्रूर झपट्टे ने इस आलिशान महल को धाराशाई कर दिया. शून्य से चल कर शिखर को छूने की ये कहानी प्रेरणा का अद्भुत स्त्रोत है. रामानंद तिवारी की जीवटता और संघर्ष का ये लेखा जोखा आपको ये बतायेगा कि कैसे 'कुछ नहीं' से 'सब कुछ' तक का सफ़र महज अपनी जिजीविषा के सहारे पूरा किया जा सकता है. एक छोटी सी किताब की दुकान में नौकरी करने से शुरू हुई ये यात्रा लगभग 30,000 वर्ग फीट में फैले आलिशान 'पिलग्रिम्स बुक हाउस' की परमोच्च सीमा तक जा पहुंची. ये सफ़र, सदा मुस्कुराते रामानंद तिवारी जी और जीवन की समस्त जमा पूँजी 'पिलग्रिम्स' के अकस्मात अंत पर ठहाके लगाते रामानंद तिवारी जी, ये सब सब देखने लायक है. बेहतरीन डॉक्यूमेंट्री..

उज्जवल इस वक्त मास कम्यूनिकेशन ग्रेजुएशन के तीसरे साल में है. फिल्म एडिटिंग, सिनेमेटोग्राफी आदि आदि सब उज्ज्वल ने अपने खुद के प्रयासों से सीखी है. कुछ सालों तक बनारस की नागरी नाटक मंडली से जुड़कर देश भर घुमक्कड़ी की. इसी दौरान कुछ फिल्म वालों का साथ नसीब हुआ. एक छोटे से कैमरे से कुछ फ़िल्में बना डाली. इसी बीच फीस्ट ऑफ़ वाराणसी नामक फिल्म की शूटिंग हुई तो उसमे उज्ज्वल को कुछ काम मिला. जिससे कमाए चालीस हज़ार रुपयों से उसने एक बढ़िया कैमरा खरीद लिया और अपने शौक को जोर शोर से आगे बढ़ाया. महज बीस साल का ये उत्साही युवा अपनी मित्र मंडली के साथ मिलकर फ़िल्में बनाने लगा. फिल्म के सब एक्टर्स, वॉइस ओवर आर्टिस्ट, आदि आदि इनके मित्रगण ही होते हैं अमूमन. सब को एक्सपोजर भी मिलता है और कुछ क्रिएटिव किये होने का सुख भी. परियों सी खूबसूरत Manisha Rai, सुरीली श्रेया, रिशव मुखर्जी, अक्षरा अग्रवाल और ऐसे ही अन्य साथियों के साथ उज्ज्वल का उज्ज्वल सफ़र जारी है.

अब तक उज्ज्वल एंड टीम दो फिल्म फेस्टिवल आयोजित करा चुकी है. आने वाले 8, 9, 10 नवम्बर को आईपी मॉल, सिगरा वाराणसी में इन युवाओं द्वारा आयोजित तीसरा फिल्म फेस्टिवल है. मुख्य अतिथि के रूप में मशहूर फोक सिंगर मालिनी अवस्थी जी आमंत्रित हैं. बनारस या आसपास रहने वाले सभी गुणीजनों से अनुरोध है कि समय निकाल कर इन युवाओं की हौसला अफजाई करने पहुँच जाइएगा.. इन्हें आपके आशीर्वाद की सख्त जरुरत है.

ज़ारा दी की तरफ से उज्ज्वल, श्रेया, मनीषा और पूरी टीम को ढेरों शुभकामनाये.

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