Tuesday, June 3, 2014

जब टाईफॉइड को मुझ से प्यार हुआ.

जिंदा है.. अभी जिंदा है हम....
इसलिए टेंशन नहीं लेना का भाई लोग...
आपसे हमारी दो हफ़्तों की जुदाई हमें भी बहुत खली है दोस्तों..
और इस जुदाई के पीछे जिस वजह का हाथ था उसका नाम है टाइफाइड... कमबख्त नाम ही ऐसा है के कंपकंपी छूट जाती है. इस नामुराद बीमारी ने हमें इतना परेशान किया कि हम अल्लाह मियाँ से रूबरू मिलते मिलते रह गए. शायद फेसबूकी पापों की सजा अभी यही भुगतने का रिवाज हो. पूरे सात दिन हॉस्पिटल में लिटाये रखा इस नासपीटे टाइफाइड ने. बेहोशी में डूबते-उतराते हम सुनते रहें कि डॉक्टर लोग घरवालों से कुछ क्रिटिकल क्रिटिकल कर के बोल रहे थे. कहते है कि अंतिम समय की आहट मिलने पर लोगों के सामने उनके पापों का लेखा-जोखा घूमने लगता है. हमारे सामने हमारे वो सारे फेसबुक स्टेटस घूम गए जिसमें हमने तरह तरह के लोगों को सींगों से पकड़ा था. हम तो डर गए कि बिना किसी उद्घोषणा के ही विदा होना पड़ेगा. एक रात तो अल्लाह मियां खुद हमारे सपने में आये और कहने लगे, 'चलने का इरादा है क्या ?' हम बोले ऐ अल्लाह अभी तो हमने अच्छे दिनों का ट्रेलर भी नहीं देखा. अभी से ये दावतनामाँ क्यूँ ? मेरा तो फेसबुक ही विधवा की मांग की तरह सूना हो जाएगा मेरे बगैर. अल्लाह मियां मुस्कुराए और बोले कि जाओ, कुछ और महीने ग़दर काटो फेसबुक पर. इन कुछ महीनों वाली बात का पेंच हम समझ तो गए थे लेकिन उस वक्त नज़रअंदाज़ करना ही बेहतर समझा. कहीं अल्लाह मियां का इरादा बदल जाता तो ?
तो इस तरह से हम जान तो बचा लाये लेकिन रूह के पिंजरे को क्षतिग्रस्त होने से नहीं बचा पाये हम. एयर रेड में ध्वस्त इमारत की तरह होकर रह गए हैं हम. वेट सेंसेक्स की तरह नोज-डाईव लगाकर 47 से सीधा 39 पर आ गया है. चेहरे की चमक तो महीनों चवनप्राश खाकर भी शायद ही लौटे. हद तो तब हो गई जब हमसे मिलने आई एक आंटी हमारे गालों के डिंपल्स को देखकर बोली कि आय हाय कैसे गड्ढे पड़ गए हैं. जी में आया हाथ में पकड़ा हुआ सूप का बाउल आंटी के सर पर पलट दे.
बुखार तो हम पर इस तरह कब्ज़ा जमाये रहता था जैसे वो रोबर्ट वाड्रा हो और हम गुडगाँव की ज़मीन. हमें 'हॉटेस्ट गर्ल ऑन प्लैनेट' का खिताब दिलाने की फिराक में मालूम पड़ता था कमबख्त. हमने उससे कहा भी कि माना 'हॉट गर्ल' होना आजकल फैशन में है लेकिन ऐसा भी क्या कि करीम होटल के तंदूर को काम्प्लेक्स दिया जाए ? लेकिन वो फिर भी नहीं माना. डीजल के दामों की तरह ऊपर ही ऊपर जाता रहा. नीचे उतरने का नाम ना लिया ससुरे ने..
अजीब अजीब रंगों और आकार प्रकार की दवाएं खाते खाते मुंह ओवैसी-तोगड़िया जैसे भाई लोगों की जुबान से ज्यादा कड़वा हो गया है. लिक्विड डाइट पर रहते रहते हम ये भी भूल चुके हैं कि रोटी होती किस शक्ल की है. हमें तो दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हुई अभी तक. ऊपर से हमरी अम्मा हमें बिस्तर से उठने ही नहीं देती. ना ही कोई किताब पकड़ने देती है. हमारा कई बार जी चाहा कि रातों को उठकर अपने कंप्यूटर से लिपट कर रो लें. पर वो भी मुमकिन ना हो सका.
खैर, अब सूरतेहाल ये है कि रिकवर कर रहे हैं. आहिस्ता आहिस्ता फिर से जलवा बिखेरेंगे आप सब अजीजों के साथ. आप लोगों ने मेरी गैर-मौजूदगी में अपनी फ़िक्र जताते मेसेजेस से मेरा इनबॉक्स भर दिया है. उसके लिए मैं आप सब की कर्ज़दार हूँ. और हाँ, आज कई दिनों बाद ये सब लिखते हुए मैं मुस्कुराई हूँ.
शुक्रिया आप सबका....
शायर खुशबीर सिंह 'शाद' से एक सवाल उधार लेकर पूछती हूँ कि,
"एक हिजरत जिस्म ने की, एक हिजरत रूह ने
इतना गहरा जख्म आसानी से भर जाएगा क्या ?"

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