Saturday, April 19, 2014

उफ्फ ये सीरियल्स....!!

कल रात मजबूरीवश जी टीवी पर आने वाला महा पॉपुलर सीरियल 'क़ुबूल है' का एक एपिसोड देखने का मौका मिला. उन बीस-पच्चीस मिनटों में इतना मानसिक टार्चर हुआ मेरा कि उसी लम्हे से मैंने समस्त महिला वर्ग को अबला मानने से इनकार कर दिया. भई इतने वाहियात, उबाऊ, इललॉजिकल सीरियलों को लगातार झेलते रहना कोई कम बहादुरी का काम है ? पुरुष वर्ग क्या खाकर मुकाबला करेगा महिलाओं का ? पुरुषों, जरा एकाध हफ्ता रोजाना कोई भी सीरियल पाबंदी से देखने की हिम्मत तो दिखाना जरा ! बहादुरी की परिभाषा बदलने की जरुरत ना महसूस हुई आपको तो कहना..
कल के एपिसोड में दिखाया गया कि कैसे एकतरफ़ा प्रेम में अंधी एक मोहतरमा अपने प्रेमी को, उसकी पत्नी को, उसकी बहन को, उसके ससुर को और पता नहीं किसे किसे मार डालती है. अब बीस मिनट के इस मिनी अत्याचार के डोज में देखिये तो कितनी खामियां थी..
1 ) वो मोहतरमा पहले तो बुढऊ का टेंटवा दबाती है. आकार-प्रकार में उससे दुगने बड़े मियां ख़ुशी ख़ुशी उसके हाथों शहीद हो जाते हैं. बिना कोई प्रतिकार किये.
2) फिर सारे घर में मौत का तांडव करती फिरती है लेकिन किसी के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती.
3 ) प्रेमी महाशय पीठ में चाक़ू का एक ही वार झेल कर ही इतने गए बीते हो जाते है कि आंधी में झूलते पेड़ की तरह डगमगाते फिरते रहते हैं.
4 ) फिर मोहतरमा हमारे सीरियल की हिरोइन 'जोया' को क़त्ल करने पहुँचती है. अब एक बात बताइये, जब इंसान पर कातिलाना हमला होता है तब वो अपनी जान बचाने की कोशिश करता है कि नहीं ! लेकिन ये 'शकल से सुन्दर, अकल से खोटी' जोया साहिबा पांव पे खंजर का वार खाकर यूँ पड़ी रहती है जैसे कह रही हो, 'आओ बहन, मुझे इस दुनियावी झमेले से मुक्त कर दो. वैसे भी ये मुआ असद किसी काम का तो है नहीं. इसकी बीवी बनने से अच्छा है मर जाना.'
5 ) लेकिन रुकिये, बिना हीरोगिरी दिखाए हीरो निपट लिया तो उस्तादी क्या हुई ? जब हमारी खलनायिका ( नाम मुझे याद नहीं ) हमारी हीरोईन पर अंतिम जानलेवा वार करने ही वाली होती है तभी हीरो महाशय आकर उसका हाथ पकड़ लेते हैं. फिर उसे जोर का धक्का देकर दीवार की तरफ धकेल देते हैं. यहाँ तक तो ठीक था लेकिन आगे जो करते है उसे देखकर इतनी कोफ़्त होती है कि बयान करना मुश्किल है. जनाब हीरोइन के ऊपर अधलेटे से उसको सांत्वना देने लगते है, प्यार जताने लगते है. जिस कमरे में एक सिरफिरी कातिला आपका खून करने के लिए घूम रही हो वहां इंसान की प्रायोरिटी क्या होनी चाहिए ? उससे अपना, अपनी बीवी का बचाव करना या बीवी के साथ रोमांस करना ? आप देख रहे हैं कि बैकग्राउंड में कातिला खड़ी हो रही है, वार करने ही वाली है और आपका हीरो हीरोइन के माथे से माथा सटायें, उसकी नाक पर नाक रगड़े जा रहा है. हद होती है उजबक होने की. उस पल तो मेरा भी दिल यही बोला कि कमीना मरे तो ही बेहतर है. जी के भी क्या करेगा निकम्मा, अहमक आदमी ? मरे तो दुनिया में बेवकूफों की तादाद में कुछ तो कमी आये. हमारी खलनायिका बड़े ही इत्मीनान से दोनों को जन्नत-नशीन ( या जहन्नुम रसीद ? ) करती है.
6 ) इतने से भी अगर आपका दिमाग न पका हो तो उसका भी इंतजाम किया हुआ था. माँ की ममता के बड़े चर्चे सुने थे मैंने. कल इस सीरियल को देखने के बाद इस मुक़द्दस जज्बे को भी शक की निगाह से देखना पड़ रहा है मुझे. जब हमारी कातिला हीरो-हीरोइन को उनकी अंतिम यात्रा पर रवाना करा रही होती है उसी वक्त हीरो की माँ दरवाजे में आ खड़ी होती है. अब जरा कल्पना कीजिये उस दृश्य की जब एक माँ के सामने उसके बेटे-बहू का क़त्ल किया जा रहा हो. क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी उस जननी की ? यहीं न कि अपनी जान की परवाह किये बगैर अपने बच्चों को बचाने के लिए कातिला से भिड़ जाती. या तो मर जाती या मार देती. ख़ास तौर से तब जब साइज़ में माता जी कातिला से दुगनी थी. क्विंटल की बोरी की तरह फैली हुई थी. बजाय कातिला को रोकने का प्रयास किये माँ जी इत्ता बड़ा मुंह खोले, आँखे फाड़ फाड़ कर नजारा करती है जी भर के. जब नज़ारे से मन भर जाता है तो छोटी बच्चियों को उठाकर फरार हो जाती है. धत्त.. ऐसी होती है माएं ??
7 ) इसके अलावा भी कई छोटे मोटे पॉइंट्स थे जो किसी भी लॉजिकल बन्दे के गले से नहीं उतरेंगे. जैसा कि बताया जाता है हमारी कातिला दो साल जेल में रहकर अभी अभी अपना बदला लेने के लिए पधारी है. फ्लैशबैक में उसे गिरफ्तार किया जाता सीन भी दिखाया गया. अब कमाल की बात ये कि दो साल पहले जिस लहंगे में पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया था, जेल से छूटकर कत्लेआम मचाने सीधी पहुंची कातिला वही लहंगा पहनकर आई है. अब पता नहीं वो जेल में थी या किसी हॉलिडे रिसोर्ट पर पिकनिक मना रही थी. एक और उल्लेखनीय बात ये कि इतना कत्लेआम होने के बावजूद बंगले में या उसके आसपास कोई आदमजात का बच्चा नहीं नजर आता. पता नहीं इतना बड़ा बंगला किस जंगल में बना लिया था भाई लोगों ने जो आस-पड़ोस में कोई इंसान ही न था. घर से भागी अम्मा जी सडकों पर मारी मारी फिरती है मदद की तलाश में लेकिन मजाल है जो उसे कोई कुत्ते का पिल्ला भी नज़र आये. हद है यार...!!!
आगे क्या हुआ ये जानना हो तो अपने रिस्क पर 'क़ुबूल है' का अगला एपिसोड देखिये. मुझ से उम्मीद मत रखियेगा कि मैं उस मानसिक यंत्रणा से खुद को फिर से गुजारने की हिम्मत कर पाउंगी. एक एपिसोड ही मेरी सहनशीलता पर बहुत भारी गुजरा है.
और हाँ, महिलाओं को अबला कहने से पहले जरा सोचियेगा जरुर. जो तबका इन सीरियलों को झेल सकता है वो कुछ भी झेल सकता है. नारी तुझे, तेरी जिजीविषा को लाखों सलाम....!!!!

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