Monday, March 31, 2014

मुश्किल वक्त

बैन करती औरतों से,
हम पूछ रहे है 'मीर' के शेर का मतलब
बेघर भंवरों से कह रहे है,
शकुंतला को रिझाने के लिए
लू भरी दोपहर में,
कूकने का तकाजा कर रहे हैं कोयल से
इस मुश्किल वक्त में,
कुछ लोग कह रहे हैं हमसे,
अपनी वफादारी साबित करने के लिए
एक टूटे हुए बर्तन को,
चाक से वफादारी साबित करने के लिए
कुछ लोग तालियां बजा रहे हैं
कुछ लोग हैरान होकर देख रहे हैं
उन की और हमारी शक्ल
ये मासूम हैं,
इन्हें मुआफ कर देना मेरे खुदा
और मुमकिन हो तो हमें भी
कि हम जी रहे हैं
इस मुश्किल वक्त में भी......
------------ नोमान शौक.
बैन - विलाप.

Sunday, March 30, 2014

महान लोकतंत्र

सहारा वाले सुब्रतो रॉय हजारों करोड़ों के कर्जदार होते हुए भी बेसहारा नहीं होते. विजय माल्या खुद को दिवालिया घोषित कर देते है और कैलेंडर शूट के लिए पेरिस जाते है. लाखों लोगों का हक दबाये बैठे इन लोगों के माथे पर अरबों की देनदारी से भी शिकन तक नहीं आती.

गरीब किसान चंद ह़जार के क़र्ज़ से घबराकर परिवार सहित ख़ुदकुशी कर लेता है.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आपका स्वागत है !

Thursday, March 27, 2014

अंधे रहनुमा

सऊदी लेखक अब्दुल्लाह मुहम्मद अल दाउद का कहना है कि कामकाजी महिलाओं का शारीरिक उत्पीडन किया जाना चाहिए. ताकि वो घरों में रहे और उनके सतीत्व की, उनकी शुद्धता की रक्षा हो. ये बात इन साहब ने ट्विटर पर कही है जहाँ इनके 97000 फॉलोअर्स है.
इस्लाम को जितना बदनाम इन कठमुल्लों ने किया है उतना तो इस्लाम का दुश्मन भी नहीं कर पाया होगा. ऐसी वाहियात सोच रखने वालों के हाथ में मजहब की कमान होना बहुत ही खतरनाक है. इतनी जलील और जहालत भरी सोच रखने वाले इस्लाम का चेहरा बने हुए है ये इस्लाम का दुर्भाग्य है. वैसे, अय्याशों का तीर्थस्थल रही शेखों की नगरी से ऐसा बयान आना कोई हैरानी की बात नहीं है. इनके लिए औरतें घर में रहना इसलिए भी जरुरी है ताकि इनका हरम गुलजार रहे. मर्द के इस्तेमाल में आनेवाली एक बेजान शय से ज्यादा औरत का वजूद ही न हो जिनके लिए उन्हें पूरी दुनिया के मुसलमान अपना रहनुमा मानते है. लानत है. हजार बार लानत है.
अपनी अकल के तारे इस तरह तोड़ कर बाद में उम्मीद करते हैं इस्लाम को बराबरी प्रदान करने वाला मजहब माना जाए. क़यामत के दिन अगर सामना हुआ न दाउद साहब तो आपका सर होगा और मेरी जूती. फिर जन्नत मिले या जहन्नुम परवाह किसे है ?

कुतर्कियों से बहस

कुतर्कियों से बहस, शांति तहस नहस..

( खबरदार जो नारा चुराया किसी ने. बड़ी क्रांतिकारी खोज है अपनी. पेटेंट कैसे होता है बस इतना बताइये.)

Wednesday, March 26, 2014

रौशन उजाले

मेरा मुंह काला, तेरे हाथ काले हो गए..
लेकिन इसी कालिख से रौशन उजाले हो गए
जिनके लिए लड़ने का दिखावा करते फिरते हो,
कभी ये भी देख उनसे दूर उनके निवाले हो गए
झूठ के तिलिस्म में कशिश नुमायाँ थी इतनी,
खामोश सब के सब सच बोलने वाले हो गए
पढ़ा किये जो दुनिया की तारीख को हर्फ़-हर्फ़,
देखिये उन जहनों में कितने जाले हो गए
खूरेंजी को कहते है जन्नत की सीढ़ी है ये,
कहाँ गर्क वो इश्क सिखाते अल्लाह वाले हो गए
मजहब ने छोड़ा जबसे प्रीत की रीत का दामन,
मस्जिदें नापाक हुई, दूषित शिवाले हो गए
तारीकियों में दिया जलाना, है काम यही तेरा 'ज़ारा',
ना घबराना जो इस राह में कभी जान के लाले हो गए
----- ज़ारा.
26/03/2014.

Tuesday, March 25, 2014

अन्दर का ज़हर

अन्दर का जहर चूम लिया धुल के आ गए
कितने शरीफ लोग थे सब खुल के आ गए
सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवक़ूफ़,
सारे सिपाही मोम के थे घुल के आ गए
मस्जिद में दूर दूर कोई दूसरा न था,
हम आज अपने आप से मिल-जुल के आ गए
नींदों से जंग होती रहेगी तमाम उम्र,
आँखों में बंद ख्वाब अगर खुल के आ गए
सूरज ने अपनी शक्ल भी देखी थी पहली बार,
आईने को मजे भी तकाबुल के आ गए
अनजाने साये फिरने लगे है इधर उधर,
मौसम हमारे शहर में काबूल के आ गए
--------------- राहत इन्दोरी.
तकाबुल - आमना-सामना, standing face,to face.

एक आजार हुई जाती है

एक आजार हुई जाती है शोहरत हम को
खुद से मिलने की भी मिलती नहीं फुरसत हम को
रौशनी का ये मुसाफिर है राह-ए-जां का नहीं,
अपने साये से भी होने लगी वहशत हम को
आँख अब किस से तहय्युर का तमाशा मांगे,
अपने होने पे भी होती नहीं हैरत हम को
अब के उम्मीद के शोले से भी आँखे न जली,
जाने किस मोड़ पे ले आई मुहब्बत हम को
कौन सी रुत है जमाने हमें क्या मालूम,
अपने दामन में लिए फिरती है हसरत हम को
जख्म ये वस्ल के मरहम से भी शायद न भरे,
हिज्र में ऐसी मिली अब के मसाफ़त हम को
------------- अमजद इस्लाम अमजद.
आजार - pain, suffering
शोहरत - प्रसिद्धी, fame.
राह-ए-जां - ज़िन्दगी की राह, way of life.
तहय्युर - अचरज, आश्चर्य, amazement
वस्ल - मिलन,
हिज्र - जुदाई,
मसाफ़त - सफ़र, journey.

Monday, March 24, 2014

रचना बड़ी या रचनाकार ?

हाल ही में प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक, इतिहासकार खुशवंत सिंह जी का निधन हुआ. उनकी मृत्यु के बाद सोशल मीडिया पर उजागर हुआ विरोधाभास मुझे हैरत में डाल गया. कुछ मित्रों ने उन्हें एक असाधारण व्यक्ति बताते हुए जिन्दादिली की मिसाल बताया तो कुछ मित्रों ने उन्हें एक ऐयाश, सिद्धांत विहीन व्यक्ति साबित कर दिखाया. इसी क्रम में उनके पिता शोभा सिंह की भगत सिंह जी के खिलाफ गवाही को भी उनके खिलाफ पेश किया गया. जहाँ कुछ लोगों के लिए वो 'ज़िन्दगी को कैसे जिया जाये' ये सिखाने वाले दार्शनिक थे तो वहीं कुछ लोगों के लिए ऐसे व्यक्ति थे जिनका नाम भी जुबान पर लाने से जुबान पर छाले पड़ने का अंदेशा था. दो तरह की ये परस्परविरोधी और अतिवादी प्रतिक्रियाएं देखकर मेरे मन में एक सवाल आया है. आप सब सुधि मित्रों से शेयर करना चाहती हूँ. अपने नजरिये से मुझे जरुर जरुर अवगत कराईयेगा. 

रचना बड़ी होती है या रचनाकार ? 

अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी में पूरी तरह विफल रहे किसी लेखक की कोई रचना अगर उम्दा हो तो क्या उसे सिर्फ इसीलिए खारिज किया जाना चाहिए कि इसे लिखने वाला व्यक्ति सभ्य समाज की कसौटी पर खरा नहीं उतरता ? महत्त्व रचना का होना चाहिए या उसे लिखने वाले की निजी ज़िन्दगी का ? आखिर वो कौन सा पैमाना है जिस पर किसी रचना को तौला जाना चाहिए...? उसकी गुणवत्ता या उसके लिखने वाले का चरित्र ? बजाहिर सीधा लगने वाला ये सवाल उतना सीधा है नहीं. ख़ास तौर से हमारे भारतीय परिवेश में जहाँ संस्कृति और सभ्यता का बहुत शोर-शराबा है. अपनी बात को कुछ उदाहरण देकर आपके सामने रखना चाहती हूँ.

प्रसिद्ध इंग्लिश कवि लार्ड बायरन का नाम आपमें से बहुत लोगों ने सुना होगा. अपनी रोमांटिक कविताओं द्वारा इस कवि ने पूरी दुनिया में धूम मचा के रख दी थी. लेकिन अपने निजी जीवन में ये शख्स निहायत ही लम्पट और व्यभिचारी था. नित नयी महिलाओं से प्रेम-सम्बन्ध स्थापित करना इसका पसंदीदा शगल था. इसके किरदार को रेखांकित करने के लिए इसका एक बेहद चर्चित लेकिन निहायत ही वाहियात और घटिया वक्तव्य डरते डरते लिख रही हूँ. इनका डंके की चोट पर ऐलान हुआ करता था, "mother i should not, Queen i could not, my blood is running through all England." लेकिन किसे याद रहा ? आज इनका नाम शैली, कीट्स जैसे महान कवियों के साथ आदर से लिया जाता है. तो क्या रचना ने रचनाकार को पीछे धकेल दिया ?

कमलेश्वर मेरे प्रिय लेखक रहे हैं. 'कितने पाकिस्तान' की तो मैं बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ. पिछले दिनों प्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी जी ने 'कितने कमलेश्वर' नाम से एक लेखमाला लिखी जिसमे उनके व्यक्तिगत जीवन की बखिया उधेड़ कर रख दी गई है. उन्होंने बताया है कि किस तरह वो अपने अपनी पत्नी के प्रति असंवेदनशील थे. किस तरह उनके और महिलाओं से भी सम्बन्ध रहे है. तो क्या अब मुझे कितने पाकिस्तान' के प्रति अपने लगाव को भूल जाना चाहिए ?

प्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा जी की पत्नि ने जब उन पर संगीन आरोप लगाये और एक ब्लॉग में उनके बारे में बहुत कुछ लिखा. तो क्या उसके बाद उनके प्रशंसकों में कमी आ गई होगी ?

हाल ही में दिवंगत राजेंद्र यादव जी की बात किये बगैर ये चर्चा अधूरी रहेगी. उनका पूरा जीवन ही विवादों से भरा रहा. उनकी किताब 'सारा आकाश' मैंने अब तक पढ़ी नहीं है. मेरी 'मस्ट रीड' की सूची में है. अब उनके बारे में इतनी उलटी सीधी बाते सुनने के बाद क्या मुझे उसे अपनी सूची से निकाल देना चाहिए ? 

इनके अलावा भी कई सारे ऐसे प्रसिद्द लेखक, कवि, कलाकार रहे हैं जिनका निजी जीवन कदापि अनुकरणीय नहीं है. लेकिन जिनकी रचनाएं उत्कृष्ट है. तो किसे चुना जाना चाहिए..? रचना को या रचनाकार को ?

जब कोई व्यक्ति किसी रचना का सृजन करता है तो क्या उस वक्त वो वही व्यक्ति रहता है ? बीवी को पीटने वाला, व्यभिचारी, शराबी, आत्ममुग्ध आदि आदि.? या फिर वो किसी और ही व्यक्ति में तब्दील हो जाता है ? अपने पात्रों में क्या उसका अंश होता है ? या पात्रों की आत्मा उसमे समाहित हो जाती है ? इस सवाल का जवाब तो कोई साहित्यिक व्यक्ति ही दे सकता है. लेकिन हम पाठकों का क्या दायित्व है ? रचनाकार के निजी जीवन के आधार पर रचना का मूल्यांकन करें या रचना को एक पूर्वाग्रह रहित नजरिये से देखकर उसका आनंद ले ? 

क्या सही है ?  जरुर बताइये. 

Sunday, March 23, 2014

कांग्रेसी भईया

अरे ओ कांग्रेसी भईया,

सुना है भाजपा में बुजुर्गों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार से बहुत व्यथित हो तुम..! ये संस्कृति रक्षक पार्टी के जींस तुममे कहाँ से आ गए भाई ? चलो आ गए तो अच्छी बात है. बुजुर्गों का सम्मान करने की भारतीय सभ्यता से तुम्हारा इतना प्रेम देख कर आँखे भर आई.

एक बात तो बताओ मित्र, ये सीताराम केसरी कौन थे ? सुना है बुढौती में उनकी भी बहुत छिछालेदारी हुई थी. कुछ हमें भी इतिहास बताओ न यार..!

अरे, अरे...
रुको तो...
बता के तो जाओ....
धत्त...

Thursday, March 20, 2014

क्रांतिकारी व्यंग

आज सुबह किसी बात पर छोटी बहन रूठ गई. तो मैंने उसे कहा, "सुबह सुबह क्यूँ आडवाणी हो रही है ?"

उसकी तो समझ में ही नहीं आया. 

बताओ तो, हमारा इतना क्रांतिकारी व्यंग फिजूल चला गया.

Wednesday, March 19, 2014

मौसिकी की जन्नत

'सुर कि बारादरी' से एक और टुकड़ा चाँद का....
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उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब एक बार बातचीत के दौरान कहने लगे - "यह जो आपके यहाँ ( हिन्दुओं में ) हज़ारों देवी-देवता हैं, हमारे मजहब में ( मुसलमानों में ) ढेरों पीर-पैगम्बर हैं - ये सब कौन लोग हैं ? जानते नहीं न ? हम बताते हैं भईया ! खुदा को तो नहीं देखा है, पर हां, गांधी जी को जरुर देखा, मदन मोहन मालवीय, नरेन्द्र देव और पंडित ओंकारनाथ ठाकुर को देखा है. उस्ताद फ़य्याज़ खां को बहुत नजदीक से देखा और सुना है. अरे ये लोग ही तो हमारे समय के पैगम्बर, देवता लोग है."
आगे कहने लगे - "अब सरस्वती को कौन अपनी आँखों से देख पाया होगा ? मगर बड़ी मोतीबाई, सिद्धेश्वरी, अंजनीबाई मालपेकर और लता मंगेशकर को देखा है. मैं दावे से कह सकता हूँ, अगर सरस्वती कभी होंगी, तो इन्हीं लोगों की तरह होंगी और बरखुरदार इतनी ही सुरीली होंगी. न तो ये औरतें सरस्वती से कम सुरीली होंगी और न ही सरस्वती इन गायिकाओं-फनकारों से ज्यादा सुर वाली. मगर आज कौन है, जो यह सब कहे. हम कहे दे रहे हैं क्योंकि जानते हैं कि मौसिकी की जन्नत से अलग कोई जन्नत नहीं हैं इस जहान में."

Monday, March 17, 2014

फटा सुर ना बख्शें.

अद्वितीय शहनाई वादक भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के जीवन पर आधारित किताब 'सुर की बारादरी' से एक अंश :-
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किसी दिन एक शिष्या ने डरते-डरते खां साहब को टोका - "बाबा ! आप यह क्या करते हैं ? इतनी प्रतिष्ठा है आपकी ! अब तो आपको भारतरत्न भी मिल चुका है, यह फटा हुआ तहमद न पहना करें. अच्छा नहीं लगता. जब भी कोई आता है, आप इसी फटे तहमद में सबसे मिलते हैं."
खां साहब मुस्कुराए. लाड से भरकर बोले - "धत ! पगली ई भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं. तुम लोगों की तरह बनाव-सिंगार देखते रहते, तो उमर ही बीत जाती, हो चुकती शहनाई. तब क्या ख़ाक रियाज़ हो पाता ! ठीक है बिटिया, आगे से नहीं पहनेंगे, मगर इतना बताएं देते हैं कि मालिक से यही दुआ है - फटा सुर न बख्शे. लुंगिया का क्या है, आज फटी है, कल सी जायेगी."
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मेरी भी रब से दुआ है कि ज़िन्दगी के सफ़र में मुहाज कोई भी हो, अपने काम के प्रति यही समर्पण की भावना हो मुझमें .यही लगन हो मुझमे.

मुर्शिद खेले होली

होली मुबारक हो सबको...!!!
होली के तोहफे के तौर पर एक नायाब सूफियाना कलाम पेशे-खिदमत है. रूहानी गीत है इसलिए इत्मीनान से सुनने का. ये ना हो कि बैकग्राउंड में बज रहा है और आप किसी से चैट बॉक्स में बतिया रहे हो.. अपने बीजी शेड्यूल में से सात मिनट इकतालीस सेकंड निकालकर जरुर सुनिए. जरुर पसंद आएगा आप लोगों को. ना पसंद आने का सवाल ही नहीं.
मुझे हैरानी है कि ऐसा बेहतरीन गीत लोगों की नोटिस में आने से कैसे बचा रह गया ? जावेद अली, मुनव्वर मासूम और शंकर महादेवन की बेहतरीन जुगलबंदी गौर करने लायक है. मेरी तरफ से इस गीत को 100 में से 110 नंबर.
"मेरा मुर्शिद खेले होली..."

Saturday, March 15, 2014

यथा राजा तथा प्रजा

अभी कुछ दिन पहले ही ‪#‎स्टॉप_वॉचिंग_आजतक‬ कैम्पेन बड़े जोरो शोरों से चल रहा था. 'पेड मीडिया' शब्द भी हर तीसरी पोस्ट में दिखाई दे रहा था. फिर अब ये अचानक क्या हो गया भाई ? मीडिया की तरफदारी में इत्ते लोग देखकर हैरान हूँ. अमां यार, इत्ती जल्दी जल्दी तो थाली का बैंगन भी नहीं लुढ़कता. कुछ तो अपने स्टैंड पर रहना सीखो भाई..!
किसी भी राजनीतिक विचारधारा को फॉलो करने के लिए हम सब स्वतंत्र है लेकिन सिर्फ विरोध के लिए विरोध दुराग्रह ही प्रतीत होता है. अपने बयान से पलट जाना नेताओं की खासियत है मित्रों. इसे खुद में जबरन इंजेक्ट करना कहाँ की समझदारी है ?
अगर हम आम लोग भी इसी तरह पलटी मारते रहे तो समझ लीजिये हम उन्हीं जनप्रतिनिधियों के काबिल है, 'अवसरवाद' जिनके ब्लड स्ट्रीम में बहता है.
यथा राजा तथा प्रजा वाली मिसाल ऐंवें ही तो ना होगी !!!

Thursday, March 13, 2014

जो काम करना जानते है, वो कम बोलते है...

आज एक छोटी सी कहानी....
हवाई जहाज के निर्माता राईट बधुओं का उनकी इस उपलब्धि के लिए सत्कार समारोह हो रहा था. जब उनको अपनी बात कहने के लिए कहा गया तो बड़े भाई ने कहा,

"ऐसे अवसरों पर बोलने का दायित्व छोटे भाई ने संभाला है."

इतना कहकर उन्होंने माइक छोटे भाई को पकड़ा दिया.

वो महाशय भी काफी गुणी थे. वो भी सिर्फ एक ही वाक्य बोले,

"बड़े भाई के सारपूर्ण भाषण के बाद मैं भला क्या कह सकता हूँ !"

सो, दी मोरल ऑफ़ दी इश्टोरी इज,
जो काम करना जानते है, वो कम बोलते है...

Monday, March 10, 2014

यकीन

होता इन्हें यकीन गर जन्नत में हूरों का
ये वाइज़-ओ-शेख कब के मर चुके होते....!!!
-------------- शायर नामालूम..

फसादी

जो देखती हूँ वही कहने की आदी हूँ
मैं अपने शहर की सबसे बड़ी फसादी हूँ.
------------किसने लिखा नहीं मालूम लेकिन है ज़बरदस्त...

प्रश्नों का चक्रव्यूह

असमिया कवि समीर तांती की एक कविता....
---------------- प्रश्नों का चक्रव्यूह ------------------
समझ नहीं पाता मैं
रातों को क्यों फूटपाथ पर
सोते हैं आदमी ?

भरी दुपहरी की उजास में
क्यों खो जाते है
मासूम बच्चे ?
मालूम नहीं क्यों
मैदानों में दम तोड देती है मछलियाँ
ठूंठ बन जाते है पेड़ !
किसी से कुछ भी कहे बिना
हंसती-खेलती कोई नवयुवती
क्यों चुपके से लगा लेती है फाँसी ?
एक-दूसरे को यूं ही
कैसे भुला देते है ?
क्यों एक-दूसरे को मार डालते है लोग ?
मैं आज भी पूछ नहीं पाया किसी से
किस आघात से हो जाते है
विक्षिप्त... लड़के मेरे गाँव के ?
काश ! कभी, कोई मुझे ये बताता
क्यों कर देते है किसी को
जात से बाहर ?
क्यों चलाई जाती है गोली ?
क्यों जला दिए जाते है
पुल गाँव के ?
किसलिए जारी होते है
नोटिस
गरीब, भोले किसानों को ?
कोई तो बताये मुझे
किस अदालत में करूँ
मैं जीवन के लिए आवेदन ?
मुझसे मत पूछो मेरी नागरिकता
मैं तो लम्बे अरसे से हूँ
देशहीन...!!!
---------- अनुवाद नीता बैनर्जी द्वारा.