Wednesday, January 29, 2014

मांग रहा है

लहू लहू सी चश्म-ए-नम में ख्वाब मांग रहा है
ये मेरा दिल भी मुसलसल अज़ाब मांग रहा है
हमारे आँचल में टंके हैं कांटे सितारों की जगह,
मेरा अंजान हमसफ़र मुझसे गुलाब मांग रहा है

तमाम उम्र तुझे शर्मसार होने न दिया कभी,
मेरे ज़मीर तू मुझसे क्या जवाब मांग रहा है
वो देख हंस रहे है सब तेरी नादानी पर,
गुनाह कर रहा है और सवाब मांग रहा है
हमारा वरक़ वरक़ पोशीदा है हर ईक निगाह से,
और तू है के पढने सारी किताब मांग रहा है
वो लम्हे, जो उतरे थे मुस्कान की वजह बनकर,
उन्हीं लम्हों का ज़माना हिसाब मांग रहा है
लौटा है वो तक़रीर कर के औरत की आज़ादी पर,
बीवी के लिए अपनी सियाह हिजाब मांग रहा है
बिदाई बेटी की थका गई है उसका बदन,
वो थकन मिटाने कमसीन शबाब मांग रहा है
जो मांगता वो मेरी जां, इन्कार न करती मैं 'ज़ारा',
मगर वो मेरी सोच, मेरे ख्वाब मांग रहा है
------- ज़ारा.
29/01/2014.

Tuesday, January 28, 2014

मुखौटा.

~~~~~~~~~मुखौटा~~~~~~~~

उसे पहली बार मेरा पांच साल का भांजा आमिर लाया था । तब, जब वो लोग कलियर जाते हुए हमारे यहाँ रुके थे । लिजलिजी रबड़ से बना भयंकर सा मुखौटा । सुर्ख दहकती हुई आँखें, चेहरे पर अजीब से रंगों का मिश्रण और डरावनी मुद्रा । पहली बार जब आमिर उसे पहने हुए अचानक सामने कूदा था तो मेरी चीख निकल गई थी । दिल उछल कर हलक में आ गया था । कितनी ही देर लगी थी अपनी बेतरतीब साँसों पर काबू पाने में । अगर वो हमारे यहाँ मेहमान नहीं होता तो एक मारती खींचके । लेकिन मेहमान नवाजी का और बच्चे की उम्र का खयाल कर के चुप लगा गई थी । मुझे याद है आमिर कितना खुल कर हंसा था मेरे डरने से । उसकी निगाह में एक बच्चे द्वारा किसी बड़े को डराना बहुत बड़ा काम था । बहुत खुश हुआ था वो अपनी हरकत पर । जो दो दिन वो लोग हमारे यहाँ रुके, उसने कई बार मुझे वो मुखौटा पहन कर डराया । पहली बार के बाद मेरा डर तो निकल गया था लेकिन मैं आमिर की ख़ुशी के लिए डरने का नाटक करती रही । उसे झूठ मूठ का डांटती भी रही । वो बहुत खुश होता था । फिर वो लोग चले गए और मुखौटा रह गया । पता नहीं आमिर उसे ले जाना भूल गया था या उसने उसे जानबूझकर मेरे लिए छोड़ा था । लेकिन उनके जाने के बाद मुझे वो बैठक में मिला । मैंने उसे उठाकर अपने कमरे में अपनी मेज़ की दराज़ में रख दिया । दो दिनों में उसकी आदत तो हो चुकी थी लेकिन रात में उसकी तरफ देखने से अब भी हल्का सा डर लगता ही था ।

दिन बीतते गए और मैं मुखौटे को भूलती गई । वैसे भी याद रखने के लिए बहुत सी चीजें थी ज़िन्दगी में । जैसे की तुम । हाँ तुम, अर्श अहमद खान । तुम्हें याद करना, तुम्हें सोचना एक अलग ही दुनिया में ले जाता था मुझे । तुम्हारे होते हुए मुझे वक्त हमेशा कम पड़ा करता था । उस अनजानी सी कशिश को कभी लफ़्ज़ों में पिरोने की कोशिश तो नही की मैंने लेकिन बहुत कुछ ऐसा ज़हन में उमड़ता रहता था जिसे बाहर निकालने की कोशिश में मैं अधमरी हुई जाती थी । मेरी बातें सुनकर तुम पूछा करते थे कि तुम ऐसी किताबी बातें कैसे कर लेती हो ? और मैं हमेशा मुस्कुराके यही कहती थी के बहुत किताबें पढ़ती जो हूँ । हाँ अर्श अहमद खान मैं बहुत किताबें पढ़ती थी, अब भी पढ़ती हूँ । तुम्हारे बाद भी । आखिर उन्ही से तो सीखा है मैंने लहजे पहचानना । बातों के पीछे छिपी हुई बात जानना । अगर ऐसा ना होता तो उस दिन तुम्हारी बातों को अन्दर तक पढने में कामयाब हो पाती भला ?

मुझे आज भी लम्हा लम्हा याद है वो दिन जब तुम आखिरी बार हमारे घर आये थे । तुम्हे आये हुए बहुत दिन बीत चुके थे । इतने ज्यादा के अब तुम्हारे आने की उम्मीद भी करनी छोड़ दी थी मैंने । और ऐसे में अचानक तुम आये । तुम्हें देखकर पता नहीं क्यूँ उस एक बार दिल की धड़कनें काबू में रही । जब कि हमेशा वो एकाध बीट मिस कर दिया करती थी । पता नहीं क्यूँ वो बेचैनी,वो बेताबी नदारद थी । शायद पिछले दिनों की तुम्हारी बेरुखी का असर हो । तुम्हारे आते ही मैं हमेशा की तरह किचन की तरफ मुड़ी और हमेशा की तरह अम्मी ने रोक दिया कि मैं देखती हूँ, तुम अर्श से बातें करो । क्या वो कुछ जानती थी ? ये माएं भी ना बड़ी अजीब शय होती है । अपनी औलादों के बारे में इन्हें सब पता होता है । बिना कुछ बताये भी । हमेशा की तरह तुम और मैं आमने सामने बैठे थे । तुम उस सोफे पर, मैं इधरवाले पर । बीच में लम्बी सी शीशे की मेज । तुम जब भी आते बैठने का यही सिस्टम जारी रहता । उस दिन बहुत देर तक एक बेचैन खामोशी हवा में तैरती रही । फिर मैंने ही बात शुरू की थी ।

“बहुत दिनों बाद आये आप । क्या बात है, आप बेज़ार है मुझसे ?”

“नहीं । नहीं तो…” – तुमने हडबडाकर कहा था – “बेज़ार क्यूँ होने लगा ? बस मसरूफियत ही इतनी बढ़ गई है के वक्त ही नहीं निकल पाता । तुम तो जानती ही हो ।”

हाँ, मैं तो जानती ही थी । वो हर तीसरे दिन तुम्हारा मेरे घर बहाने बहाने से आ धमकना, वो समीरा बाज़ी के फ़ोन पर बार बार फ़ोन करके बात करवाने की गुजारिशें करना, वो ‘तुम तो मुझे वक्त ही नहीं देती हो’ वाली शिकायतें करना । सब जानती थी मैं । ये भी की आजकल तुम्हारी तरफ से बनाई गई इस दूरी की वजह क्या है । एक लम्हें को दिल चाहा ये सब कह दूं लेकिन फिर संभाल ही लिया खुद को ।

“हाँ जानती हूँ । आपकी जॉब का क्या हुआ ?”

“हो जाएगा । एक जगह बात चल रही है । इस बार पक्का है । शायद देहरादून जाना पड़े ।”

“ओह, तो और क्या सोचा आगे आपने?” – मैंने पूछा ।

“किस बारे में ?”

किस बारे में ? हाँ ये भी तो ईक सवाल है । किस बारे में सोचते तुम । अपनी नौकरी के बारे में, अपनी मसरूफियत के बारे में या…..या मेरे बारे में। मेरे बारे में क्यूँ नहीं सोचते तुम ? होठों पर रेंग रहे इस सवाल को बाहर फेंकना इतना तकलीफदेह क्यूँ हो गया था ? अब भी सोचती हूँ तो जवाब नहीं मिलता । पता नहीं बेहिसाब बोलने वाली मैं उस लम्हे इतनी चुप क्यूँ हो गई थी । बहुत देर तक एक चीखती हुई खामोशी छाई रही माहौल में । फिर तुमने ही उसे तोडा ।

“घरवाले शादी पर जोर दे रहे है।” – तुमने थैली से खरगोश बाहर निकाल ही लिया था ।

“हूँ ।” – मेरी शांत प्रतिक्रिया से तुमसे ज्यादा मुझे हैरानी हुई थी ।

तुम गौर से पढना चाह रहे थे मेरे चेहरे पर दर्द की लकीरें । और मैं इस कोशिश में थी कि दिल के ज़ज्बात चेहरे पर ना झलकने पाए । जीत शायद मेरी ही हुई थी । तभी तो तुमने झुंझलाकर कहा था,

“कुछ कहोगी नहीं ?”

“क्या कहूँ ? मेरे कहने लायक कुछ बचा है ?” – मेरा सीधा सवाल शायद तुम्हे कुछ असहज कर गया था । मुझे खुद पर ही गुस्सा आने लगा । तुम्हें आजमाइश में डालना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगा ।

“मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ शाद ।” – तुम्हारी आवाज़ शायद तुम्हें भी अजनबी लगी होगी ।

“ऐसी कोई बात नहीं है । लेकिन अगर बात चल ही निकली है तो बताइये की क्यूँकर आपका और मेरा साथ नहीं बन सकता ?” –थोड़ी सी कोशिश अपने लिए भी कर के देखना मेरा फ़र्ज़ था । भले ही नाकामयाबी की गारंटी हो ।

“पापा ने कमिट किया हुआ है उनके दोस्त से । वो कभी नहीं मानेंगे । मेरे हाथ में कुछ नहीं है ।” – वही स्टैण्डर्ड जवाब ।

जुबां पे आया हुआ सवाल कि ‘प्यार क्या पापा से पूछकर किया था’ कितनी मुश्किलों से हलक के अन्दर धकेला था इसका तुम्हें अहसास भी नहीं हुआ था । कुछ पल के लिए तो दिमाग सुन्न हो गया था और ज़हन समीरा बाज़ी की बातों की तरफ चला गया था ।

‘तुम समझती क्यूँ नहीं शाद, अर्श तुमसे शादी कभी नहीं करेगा । तुमसे शादी कर के उसे सिर्फ बीवी हासिल होगी । लेकिन जहाँ उसके घरवाले उसकी शादी करा रहे हैं वहां उसे बीवी के साथ साथ एक अच्छी नौकरी और सब ठीक रहा तो राजनीति में करियर का सुनहरा मौका मिलेगा । उसके होने वाले ससुर एक बड़े नेता के करीबी है और उनका अपने दामाद को राजनीति में उतारने का इरादा है ।इस बार के पंचायती चुनाव में हो सकता है अर्श को मौका मिले । ये एक बेहद लुभावना ऑफर है जिसे अर्श कभी नहीं छोड़ेगा । तुम चाहे मानो या ना मानो लेकिन अर्श कितना सेल्फिश है ये मैं जानती हूँ । वो तुम्हें छोड़ देगा लेकिन ये मौका नहीं जाने देगा।’ समीरा बाज़ी की आवाज़ कानों में गूँज रही थी । हालांकि उस आवाज़ पर मैंने ना तब यकीन किया था और ना ही अब करना चाहती थी । मगर क्या तुम इसे सच साबित करने आये थे अर्श ? समीरा बाज़ी तुम्हारी भाभी थी । तुम्हारे घर में ही रहती थी । तुम्हारे घरकी सब बातें उन्हें पता होना लाज़मी था । झूठ बोलने वाली या बेवजह किसी का बुरा चाहने वाली भी वो नहीं थी । ख़ास तौर पर मुझ से तो उन्हें बहुत दिली लगाव था । अब भी है । वो अगर कुछ कहती थी तो उनकी बातों को मुझे संजीदगी से लेना ही चाहिए था । लेकिन अर्श, ये जो उम्मीद है न, बड़ी ही ज़ालिम शय है । ब्लड कैंसर के आखिरी स्टेज पर पहुँच चुके शख्स को भी ज़िन्दगी से चिपके रहने पर मजबूर करती है ये उम्मीद । मुझे भी क्या इसी उम्मीद की उम्मीद ने नाउम्मीद होने से रोका था ? ओह, फिर किताबी बात कर दी मैंने । यूं बहक जाना आम बात हो गई है अब । फर्क सिर्फ इतना है की अब कोई टोकने वाला नहीं रहा । अब भी इस सवाल से परेशान हूँ कि उस दिन क्या तुम मेरी उम्मीद का मुर्दा गहरा दफ्न करने आये थे ?

“कहाँ खो गई ?” – तुम्हारे सवाल ने मुझे वापस उस कमरें में लौट आने पर मजबूर कर दिया था ।

“कहीं नहीं ।” – मेरा मुख़्तसर सा जवाब ।

“तुम मुझे माफ़ नहीं करोगी ना कभी ?” –  तुमने आवाज़ में भरसक शर्मिंदगी घोलने की कोशिश करते हुए पूछा था ।

और तुम ये कभी नहीं जान पाओगे की तुम्हारे इस सवाल ने मेरे अन्दर कितने विस्फोट कर दिए थे । ये सवाल सिर्फ सवाल नहीं था । ऐलान था इस बात का कि तुमने अपनी मंजिल चुन ली थी । तुमने अपना सफ़र शुरू भी कर दिया था । और तुम मुझे शायद सिर्फ इत्तला देने आये थे । ये जताने आये थे कि तुमने जो राह चुनी है उसपर तुम्हें तुम्हारी मर्ज़ी के खिलाफ धकेला गया है । लेकिन क्या ये सच था अर्श ? क्या तुम चाहते तो हमारा साथ मुमकिन नहीं होता ? समीरा बाज़ी हमारे खानदान से थी और तुम्हारे घर में खुश थी । दोनों खानदान एक दूसरे से अच्छी तरह वाकिफ थे । हमारे यहाँ से एक और लड़की ले जाना तुम्हारे घरवालों को बिलकुल भी नागवार नहीं गुजरता । अगर तुम जिक्र चलाते तो तुम्हारे पापा यकीनन मान जाते । अहमद अंकल एक नेक और रहमदिल शख्स रहे हैं । उन्हें अपनी ही चलाते हुए मैंने कभी नहीं देखा । समीरा बाजी कहते नहीं थकती कि उन्होंने उन्हें कभी बाप की कमी महसूस नहीं होने दी । अगर तुम अपनी पसंद जाहिर करते तो थोड़ी सी कोशिशों से ये मुमकिन हो जाता। तो क्या ये तुम थे अर्श जिसने अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उनकी किसी फर्जी कमिटमेंट का सहारा लिया था ? क्या ये तुम थे जिसे एक उज्ज्वल भविष्य के लिए मेरी कुर्बानी सस्ता सौदा लगी थी ? ये और इस जैसे न जाने कितने सवाल ज़हन को कुरेद रहे थे । लेकिन तुम्हें शर्मिंदा करना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा ।

“बोलो न, क्या कभी मुझे माफ़ नहीं कर सकोगी ?” – तुम व्याकुलता की प्रतिमूर्ति बने अपना सवाल दोहरा रहे थे ।

“ऐसी कोई बात नहीं है । जो किस्मत में लिखा होता है वही होता है । इसमें किसी का क्या दोष ?” – बड़ी सफाई से जवाब दिया था मैंने । अन्दर की हलचल का अक्स चेहरे पर आने दिए बगैर । जब शिद्दत ज्यादा ही महसूस हुई तो ‘अम्मी कहाँ रह गई, देखकर आऊँ’ कहकर मैं उठ के चल दी थी । अन्दर के कमरे में जाकर खुद को व्यवस्थित किया था । और फिर वो लम्हा आया । वो लम्हा, जिसने मुझे समझाया की मुझ से मिलने तुम एक मुखौटा पहनकर आये थे । उदासी का मुखौटा, फर्जी शर्मिंदगी का मुखौटा । जब मैं वापस आ रही थी मैंने देखा की तुम अपनी दोनों आँखें जोर जोर से मसल रहे थे । ताकि वो सुर्ख हो जाती । मैंने तुम्हें थोडा वक्त दिया और पैरों की आवाज़ करती हुई लौटी ।

“आ रही है चाय ।” मैंने बताया। और दिल थाम के इन्तजार करती रही । इस बात का कि अब तुम कुछ कहोगे और मेरे शक को सही साबित कर दोगे । या फिर इस बात का कि तुम कुछ नहीं कहोगे और मेरे यकीन का मान रखोगे । लेकिन वो मनहूस दिन शायद सभी हिसाब एक ही झटके में करने पर आमादा था । तुमने कह ही दिया,

“शाद, मैं इतना परेशान हूँ कि कई रातों से सो नहीं पा रहा हूँ । देखो मेरी आँखें कितनी लाल हो रही है । ये बेतहाशा रोने की वजह से है । मैं तुम्हें कैसे बताऊँ कि मैं तुम्हारे बगैर जीने का तसव्वुर भी नहीं कर सकता था । लेकिन हालात ने मुझे मजबूर कर दिया । मुझे माफ़ कर दो।”

तुम्हें ये जानकर अजीब लगेगा अर्श के मुझे उस संजीदा घडी में भी मज़ाक सूझ गया था । मैं तुमसे कहने वाली थी के अब किताबी बातें कौन कर रहा है ? लेकिन फिर सोचा इससे तुम्हारे मुखौटे का रंग उड़ जाएगा । मैंने कुछ नहीं कहा । सिर्फ तुम्हें देखती रही थी । और तुम चेहरा ग़मगीन दिखाने के चक्कर में अजीब अजीब तरह की मुद्राएं बनाने लगे थे ।

फिर अम्मी आ गई और उन्होंने तुम्हे उस उलझन से निजात दिलाई । फिर तुमने चाय जैसे तैसे ख़त्म की । अम्मी से कुछ रस्मी बातें की और चले गए । उसके बाद तुम कभी नहीं लौटकर आये । हाँ, तुम्हारी शादी का कार्ड जरुर आया था । सुनहरे हर्फों में लिखा तुम्हारा नाम मैं देर तक छूती रही थी । अर्श वेड्स सना । कितना अजीब लग रहा था वो पढना । एक मज़े की बात बताऊँ ? तुम्हारी बीवी का नाम देखकर मुझे एक बेकार सी तुकबंदी भी सूझी थी । ‘तुम्हें मिल गई सना, और हम हो गए फना ।’ कैसी है ? बेकार है न ? समीरा बाज़ी भी यही बोली थी ।

खैर, उसके बाद की घटनाएं बड़ी जल्दी जल्दी हुई । तुम्हारी शादी हो गई । तुम देहरादून चले गए । गाहे बगाहे तुम्हारी ख़बरें मिलती रही और मैं उन्हें बिना कोई दिलचस्पी दिखाए सुनती रही । मैं फिर से अपनी किताबों की दुनिया में लौट गई । इस बार और शिद्दत के साथ ।

तुम्हें बताना नहीं चाहती के उस दिन तुम्हारे जाने के बाद मैंने आमिर का छोड़ा हुआ मुखौटा मेज़ की दराज़ में से निकाल कर देर तलक देखा था । और फिर उसे अपनी अलमारी में सहेजकर रख दिया था । अपनी डायरी प्यारी के साथ । पता है वो मुझे बेहद हिम्मत देता है । है न अजीब बात ? वो मुझे बताता है कि मुखौटा सब पहन के चलते है इस दुनिया में । लेकिन जरुरी नहीं कि हर एक का मुखौटा नुमायां हो । और ये भी जरुरी नहीं के हर एक मुखौटा डरावना हो । कई मुखौटे बेहद खूबसूरत शक्ल लिए होते है । अब ये आप पर है कि आप फरेब झेलने में कितने माहिर हो ।

और हाँ, उस दिन के बाद एक और तब्दीली भी आई है मुझ में । मैंने भी एक मुखौटा लगा लिया है । सदा खुश रहने वाला । पता है ये मुखौटा बेहद चमकीला है । इससे लोगों के अनचाहे सवालों से बचने में बड़ी मदद होती है । तुम्हारी शादी वाले दिन जब समीरा बाज़ी मुझे गले से लगाकर मेरे चेहरे पर कुछ ढूंढ रही थी तब भी मैंने यही मुखौटा लगा रखा था । बड़ा कामयाब रहा तजुर्बा ।उन्हें कुछ नहीं मिला । उनके चेहरे से झलकती फ़िक्र को राहत में तब्दील होते देखना बेहद अच्छा लगा मुझे । तब से मैंने इस मुखौटे को पक्का ही अपना लिया है । बहुत काम आता है कमबख्त ।

लेकिन एक बात बताऊँ ? जब सारी दुनिया नींद की आगोश में गर्क हो जाती है न तो रात के उस सन्नाटे में ये मुखौटा भी मेरा साथ छोड़ देता है । तब खुद का सामना करना बड़ा ही तकलीफदेह लगता है अर्श । और इसी वजह से मुझे रात से नफरत हो गई है । शदीद नफरत । क्या इसका कुछ उपाय हो सकता है ?

--------- ज़ारा.
25/01/2014.

( दोस्तों, कहानी जैसी संजीदा विधा में हाथ आजमाने का ये मेरा पहला तजुर्बा है. उम्मीद है मेरी इस अधकचरी कोशिश को आप मुहब्बत की नज़रों से देखेंगे. मेरी नातजुर्बेकारी इसमें जरुर झलक रही होगी. उम्मीद है आप उसके लिए मुझे माफ़ कर देंगे. आलोचना की, भूलचूक सुधार की प्रशंसा से ज्यादा आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी. शुक्रिया रुकैया जैदी साहिबा का जिनकी एक पोस्ट ने मुझे कुछ इस तरह का लिखने के लिए उकसाया. )

देवदूत पुलिस

अचानक ही हम भारतवासियों को पुलिस देवदूत के सामान लगने लगी है.. जरा एक नज़र इधर भी. इस विडियो के साथ मेरा ये दावा भी कि ऐसा मुश्किल से ही कोई शख्स मिलेगा जिसने ऐसा नज़ारा देखा ना हो ( जिसने ना देखा हो वो हाथ उठाये ).. बर्बरता तो पुलिस का दूसरा नाम है. कैसे जस्टिफाई होगा ये अमानुष व्यवहार...?

अरे हाँ, ये तो बताया ही नहीं कि ये राजधानी की पुलिस है.. दिल्ली पुलिस, आपके लिए, आपके साथ, सदैव.....
जय हो...!!!

https://www.youtube.com/watch?v=cYuwW6UuaQM

हस्सास आँखे

दर्द के मंज़र तो बिखरे पड़े है दुनिया में लेकिन,
सिर्फ वही आँख रोती है जो हस्सास होती है...

------ ज़ारा.

महानायक

आज नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जन्मदिवस पर आप सबको एक किताब का नाम सुझाने की हिमाकत कर रही हूँ.. किताबी कीड़े, नेताजी के प्रशंसक, इतिहास के विद्यार्थी और फुरसतिये मित्रगण जरुर जरुर पढ़ें... किताब लिखी है मराठी के जाने माने लेखक विश्वास पाटिल ने... नाम है 'महानायक'. मूल किताब मराठी में है लेकिन इसका हिंदी और अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है.. मेरी निगाह में एक बेहतरीन किताब है ये.. नेताजी की ज़िन्दगी को अगर करीब से समझना हो तो इसे जरुर जरुर पढ़िए... पढ़कर अपनी राय मुझ तक पहुंचाने वाले के अगले पांच स्टेटस अपडेट फ्री में शेयर करने का वादा... साथ ही लाइक्स और कमेंट्स की भरमार का आश्वासन भी... जल्दी कीजिये.. ऑफर सीमित समय तक...

on a serious note, this book is truly a masterclass... पढने वाले को नाउम्मीदी नहीं होगी.. आजमाकर देखिये पुस्तक-प्रेमियों....

केजरीवाल

फांस बन के गले में अटक रहा है
राजनीति की धूल झटक रहा है

जमे हुओं के आसन हिला दिए,
तभी तो सब को खटक रहा है..

अराजक तत्वों को उन्हीं के खेल में 
वो जम के धो रहा है, पटक रहा है...

नहीं है मसीहा, लेकिन उम्मीद है उससे
वो कारवां संभालेगा जो भटक रहा है

संभल जाओ ऐ हाकिमों के अब तो
आम आदमी का माथा सटक रहा है



--------- ज़ारा.

बदल डालो

तसकीन ना हो जिससे वो राज़ बदल डालो
जो राज़ ना रख पाये व हमराज़ बदल डालो

तुमने भी सुनी होगी बहुत आम कहावत है
अंजाम का हो गर खतरा आगाज़ बदल डालो

पुरसोज़ दिलों को जो मुस्कान न दे पाये
सुर ही ना मिले जिसमे वो साज़ बदल डालो

दुश्मन के इरादों को ज़ाहिर है अगर करना
तुम खेल वही खेलो अंदाज़ बदल डालो

ऐ दोस्त करो हिम्मत कुछ दूर सवेरा है
गर चाहते हो मंजिल परवाज़ बदल डालो

------------- अल्लामा इकबाल.

तर्क-ए-तअल्लुक

अब तो हमें भी तर्क-ए-तअल्लुक का ग़म नहीं
पर दिल ये चाहता है के आगाज़ तू करे...

-------------- अज्ञात.

तर्क-ए-तअल्लुक - सम्बन्ध विच्छेद, separation
आगाज़ - पहल, शुरुआत.

खुद से बातें

खुद से बातें करते करते 
अब मैं अक्सर थक जाती हूँ
मेरी बातें सुनने वाला,
और सुनकर उनपर हंसने वाला,
दूर दूर तक कोई नहीं..
सुनो,
तुम लौट आओ के 
मैंने सुना है
खुद से बातें करने वाले
अक्सर पागल हो जाते हैं...

------------- अज्ञात.

खुदा का तनफ़्फ़ुस

बहुत शदीद तशंनुज में मुब्तिला लोगों,
यहां से दूर मुहब्बत का एक करिया है
यहां धुएं ने मनाज़िर छुपा रखे है मगर,
उफ़ुक बक़ा का वहां से दिखाई देता है
यहां तो अपनी सदा कान में नहीं पड़ती
वहां खुदा का तनफ़्फ़ुस सुनाई देता है

----------- अहमद नदीम कासमी. 

शदीद - तीव्र, intense.
तशंनुज - lactation
करिया - गाँव, village.
मनाज़िर - नज़ारे, scenes
उफ़ुक - क्षितिज, horizon
बक़ा - अमरत्व, immortality
तनफ़्फ़ुस - साँसे, breathing

वो दोस्त भी हो सकता है

सब इस गुमान में है के गरदन तनी रहे
कोई तो ये सोचे के बात बनी रहे 

हो इख्तेलाफ लाख मगर ध्यान में रहे,
लफ़्ज़ों में तेरे थोड़ी बहुत चाशनी रहे

ये दौर तमाशे का चाहे है मुसलसल,
हर वक्त फिजा में फैली सनसनी रहे

तू अपने परखने का पैमाना बदल के देख,
वो दोस्त भी हो सकता है जिससे ठनी रहे

------ ज़ारा.
17/01/2014.

हमें खबर थी

हमें खबर थी ज़बां खोलते ही क्या होगा,
कहां कहां मगर आँखों पे हाथ रख लेते...

----------- आशुफ्ता चंगेजी.

सांप

सांप लपेटे घूम रहा हूँ
दुनिया मुझ से खौफज़दा है
सब मुझ को अच्छे लगते है
लेकिन यूं है,
जिस लड़की को चाहा मैंने
जिस लड़के को दोस्त बनाया
जिस घर में माँ बाप बनाए
जिस मस्जिद में घुटने टेके
सबने मेरा सांप ही देखा

मुझ को कोई देख ना पाया

मैं सब को कैसे समझाऊं
ये दुनिया का सांप नहीं है
मेरे साथ पला पोसा है
ये मेरा माँ जाया
बस मुझ को डसता है...!!

-------- फरहत एहसास.

आग

आग जंगल में लगी थी लेकिन,
बस्तियों में भी धुंआ जा पहुंचा
एक उडती हुई चिंगारी का,
साया फैला तो कहां जा पहुंचा

तंग गलियों में उमड़ते हुए लोग,
गो बचा लायें हैं जानें अपनी
अपने सर पर हैं जनाज़े अपने,
अपने हाथों में ज़बानें अपनी

आग जब तक ना बुझे जंगल की,
बस्तियों तक कोई जाता ही नहीं
हुस्न-ए-अशजार के मतवालों को,
हुस्न-ए-इंसान नज़र आता ही नहीं...!!

------------ अहमद नदीम कासमी.

इज़ाज़त.

ज़िन्दगी के जितने दरवाज़े है मुझ पे बंद है
देखना, हद्द-ए-नज़र से आगे देखना भी जुर्म है
सोचना, अपने अकीदों और यकीनों से निकल कर सोचना भी जुर्म है
आसमान-दर-आसमान असरार की परतें हटाकर झांकना भी जुर्म है
क्यूँ भी कहना जुर्म है, कैसे भी कहना जुर्म है
सांस लेने की आज़ादी तो मयस्सर है मगर,
जिंदा रहने के लिए इंसान को कुछ और भी दरकार है
और इस कुछ और भी का तजकिरा भी जुर्म है..
ऐ ख़ुदावंदान-ए-ऐवान-ए-अक़ाएद
ऐ हुनर-मंदान-ए-आइन-ओ-सियासत
ज़िन्दगी के नाम पर ईक इनायत चाहिए.....
मुझको इन सारे ज़राईम की इजाज़त चाहिए.....

------------- अहमद नदीम कासमी.

माणसाने - नामदेव ढसाळ

मनुष्य
पहले तो खुद को पूरी तरह बर्बाद करे
चरस ले, गांजा पिये
अफ़ीम लालपरी खाए
छक के देसी दारू पिये
इसको, उसको, किसी को भी
माँ-बहन की गालियाँ दे
पकड़कर पीटे

मर्डर करे
सोते हुओं का कत्ल करे
लड़कियों-छोरियों को छेड़े
क्या बूढ़ी, क्या तरूणी, क्या कमसिन
सभी को लपेट कर
उनका व्यासपीठ पर करे बलात्कार

ईसा के, पैगंबर के, बुद्ध के, विष्णु के वंशजों को फांसी दे
देवालय, मस्जिद, संग्रहालय आदि सभी इमारतें चूर-चूर कर दे

दुनियाभर में एक फफोले की तरह फैल चुकी
इन इंसानी करतूतों को फूलने दे
और अचानक फूट जाने दे

इसके बाद जो शेष रह गये
वे किसी को भी गुलाम न बनायें
लूटें नहीं
काला-गोरा कहें नहीं
तू ब्राह्मण, तू क्षत्रिय, तू वैश्य, तू शूद्र ऐसे कहकर दुत्कारें नहीं
आकाश को पिता और धरती को माँ मानकर
उनकी गोद मे मिलजुलकर रहें

चांद और सूरज भी फीके पड़ जाएँ
ऐसे उजले कार्य करे
एक-एक दाना भी सब बांट कर खाएँ
मनुष्यों पर ही फिर लिखी जाएँ कविताएँ
मनुष्य फिर मनुष्यों के ही गीत गायें

-नामदेव ढसाळ
--------

- अनुवाद द्वारा हितेन्द्र अनंत

मूल मराठी कविता यहाँ से पढ़िये
http://www.globalmarathi.com/20120215/5490157106900750983.htm

दूरी क्यूँ दिलों में रहे

"दूरी क्यूँ दिलों में रहे, फासले क्यूँ बढ़ते रहे
प्यारी है ज़िन्दगी है प्यारा जहां.....
रिश्ते बड़ी मुश्किलों से बनते हैं यहां पे लेकिन,
टूटने के लिए बस एक ही लम्हा...."

ए आर रहमान और नुसरत फ़तेह अली खान की लाजवाब जुगलबंदी. बेहतरीन संदेस.. प्यार का, अमन का, भाईचारे का....

"दुनिया में कही भी, दर्द से कोई भी तडपे तो हमको यहां पे,
एहसास उसके जख्मों का हो के, अपना भी दिल भर भर आये, रोये आँखें..."

http://www.youtube.com/watch?v=MUxjN2JBN5Y

ज़िन्दगी

समझ में ज़िन्दगी आये कहां से 
पढ़ी है ये इबारत दरमियां से....

-------------- जौन एलिया.

जल्दबाजी का नतीजा है दुनिया..

हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-खराब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में...

-------- जॉन एलिया.

( व्याख्या : कुन - हो जा ( ये लफ्ज़ कुरान के कुन-फ़ाया-कुन से है जो कहता है के ख़ुदा ने कहा कुन ( हो जा ) और सृष्टि का निर्माण हुआ. 
उजलत - जल्दबाजी

जॉन साहब फरमाते हैं के ये जो दुनिया इतनी संगदिल ख़राब है, ये एक लफ्ज़ "कुन" का नतीज़ा है. जिसे कहने में ख़ुदा को कोई वक़्त नहीं लगा होगा लेकिन इस जल्दबाज़ी का नतीज़ा आज हम लोग भुगत रहे है. ऐसी जल्दी में बनी दुनिया से कोई क्या उम्मीद रख सकता है ?

प्राइम टाइम विथ रविश कुमार.

""जिनका दंगों में कोई मारा गया है क्या सिर्फ वही पीड़ित है..? और जिन्होंने डर के मारे घर छोड़ रखा है वो लोग क्या है..? क्या उनका कोई मानवाधिकार नहीं है..?""

कल प्राइम टाइम में रविश कुमार का ये सवाल काफी देर तक हवा में तैरता रहा और जवाब के लिए मौजूदा पैनलिस्ट्स का मुंह ताकता रहा. सपा नेता बुक्कल नवाब कहते रहे कि मुजफ्फरनगर में सिर्फ एक कैंप बचा है और उसमे भी शरणार्थी नहीं बल्कि कांग्रेस/भाजपा के एजेंट रह रहे है जिन्हें मुआवजे के लालच में वहां रोका गया है. रविश कुमार पूछते रहे कि ऐसी जानलेवा ठण्ड में कौन वहां रहना चाहेगा लेकिन नवाब साहब अड़े रहे अपनी बेतुकी बात पर. रविश जी ने कांग्रेस के पीएल पुनिया साहब से पूछा कि राहुल गांधी ने वहां का दौरा तो किया, अच्छी बात है लेकिन वहां के लोगों के लिए क्या किया..? माना की सपा सरकार बिल्कुल फेल है पर इससे आपकी जवाबदेही कैसे ख़त्म हो गयी..? पुनिया साहब अपना राग अलापते रहे की ये राज्य सरकार की जिम्मेदारी है.

कुल मिलाकर ये कि इस देश में किसी भी चीज में राजनीति की जा सकती है. कोई मरे, जिए इससे हमारे रहनुमाओं को कोई फर्क नहीं पड़ता. ये कमबख्त वोट बैंक कैसी चीज है जिसकी वजह से इन नेताओं की सामान्य संवेदनाएं भी मर जाती है...? कल ही जनाब आज़म खान साहब का वक्तव्य आया है कि 'ये कूड़ेदान में पड़े दस वोट है जिन्हें कांग्रेस समेटना चाहती है.' यानि नेताजी की निगाह में उन लोगों का महत्त्व कूड़े से अधिक नहीं. वाह रे समाजवाद...!! नेता जी आगे ये भी कहते सुने गए कि मैं प्रदेश के मुसलमानों का एकमात्र नेता हूँ.. अव्वल तो ये बात है नहीं नेताजी. आप एकमात्र तो क्या नेता ही नहीं है उनके. और अगर किसी वजह से ऐसा हो भी तो इत्मीनान रखिये रहेंगे नहीं. आप जैसे रहनुमा जिस कौम में हो उसका बेडा गर्क हो ही हो. अहंकार तो ना ही यजीद का रहा ना ही रावण का. तो आपका कैसे रह पायेगा..? एक दिन आप का मकाम भी कूड़ेदान ही होगा. यकीन ना आये तो अपने पुराने साथी श्री श्री अमर सिंह ठाकुर को याद कर लीजियेगा.

आप तो ऐसे न थे.... या थे...???

देखिये जी, आप महान नारीवादी महिला है, कबूल.. साथ ही ये भी कबूल की आपका लिखा हजारों लोग पढ़ते है और पसंद करते है. अब आपने कहा है की मरहूम खुर्शीद अनवर साहब आपके पिता समान थे. आप उनके यहां सेफ महसूस करती थी. और वो वैसा कुछ कर ही नहीं सकते थे जैसा कि उनपर आरोप लगे. अब सिर्फ इतना बता दीजिये कि आपने ये सब पिछले तीन महीनों में क्यूँ नहीं कहा...? अगर यही बात आप उनपर आरोप लगते ही ताल ठोककर कहती तो शायद खुर्शीद जी वो कदम ना उठाते. आपकी बात लोग सुनते है तो क्यूँ नहीं आप तब उनके खुलकर समर्थन में आई...? तब जब उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरुरत थी...? आपके ये कहने से और कुछ भले ही ना होता कम से कम खुर्शीद जी को मानसिक संबल तो मिलता..

और कामरेड बंधुओं, जो लोग खुर्शीद जी के खिलाफ थे वो तो थे ही. आप तो उनकी तरफ थे ना.? जो खिलाफ थे वो तीन महीनों से फेसबुक पर लिखे जा रहे थे. जिसका की उन्होंने डटकर मुकाबला किया. जिस दिन इंडिया टीवी ने न्यूज़ चलाई आप ने बढ़ बढ़ कर इन्साफ को बधाइयां दी. इंडिया टीवी की तारीफ़ की और इसे एक 'बेहतर' कदम बताया. दूसरे ही दिन उन्होंने जान दे दी. जो बातें आप अब कह रहे है वो वक्त रहते कहते तो खुर्शीद जी को ये तो लगता कि कोई तो उनके साथ है. तो क्या ये मान लिया जाए कि खुर्शीद जी ने ख़ुदकुशी दुश्मनों की दुश्मनी से आजिज आकर नहीं बल्कि दोस्तों के दोगलेपन से घबराकर कर ली.? क्या आप 'प्ले सेफ' वाले मोड़ में थे..? बैकफूट पर खेल रहे थे ?

सवाल जायज है बुद्धिजीवियों लेकिन मुझे यकीन है आप अपनी चीख-चिल्लाहट में इसे नज़रअंदाज करने में कामयाब हो ही जाओगे. मरने वाला मर गया. अब चमकाते रहो उसकी लाश पर अपनी दुकान. ख़ास तौर से तब जब रोकने वाला भी कोई नहीं. अंग्रेज लोग शायद ऐसी ही स्थिति को विन-विन सिचुएशन बोल गए है...
किसी का भी यूं जान से जाना एक स्तब्ध करने वाली घटना है. और उससे ज्यादा दुखदाई वो तमाशा है जो उनकी मौत के बाद हो रहा है. अफ़सोस ये कि इनमे ऐसे नाम जुड़े है जिन्हें हम जैसे कमअक्ल लोग अपने रहनुमा समझते आये है. इनकी बातों से प्रभावित होते रहे हैं. अब धीरे धीरे तिलिस्म टूटने लगा है. ये बहुत गहरा अपेक्षाभंग है. और विश्वास की हत्या भी.

गले से शब को लगाया....

गले से शब को लगाया सहर के धोके में..
हम आ गए है खुद अपनी नज़र के धोके में...

इधर है आग का दरिया, उधर लहू की नदी,
कहां पहुंच गए ये हम रहबर के धोके में...

कभी चले थे जहां से उसी मकाम पर है,
थे दायरों में रवां हम सफ़र के धोके में...

फरेब-ए-हुस्न-ए-नज़र है के सादगी दिल की,
हमेशा संग चुने है गुहर के धोके में...

अभी तो जुल्मत-ए-शब का तलिस्म बाकी है,
अभी ना शमा बुझाओ सहर के धोके में...

फिजायें अजनबी, बेगाना सूरते 'अजान'
कहां ये आ गये हम अपने घर के धोके में...

------------- अजान हुसैन.

हर ख्वाब

हर ख्वाब गर उतर पाता हकीकत की ज़मीं पर,
जन्नत की आरज़ू में परेशां न फिरते लोग....!!!

----------- ज़ारा.
28/01/2014.