Saturday, July 27, 2013

तनहा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं

जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सकी
ग़म में कभी सुकून-ए-रफ़ाक़त न दे सकी

जब मेरे सारे चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं

फिर मुझे चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
तनहा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं

उस मोड़ से शुरू करें फिर ये ज़िन्दगी

उस मोड़ से शुरू करें फिर ये ज़िन्दगी
हर शय जहां हसीन थी, हम तुम थे अजनबी

लेकर चले थे हम जिन्हें जन्नत के ख़्वाब थे
फूलों के ख़्वाब थे वो मुहब्बत के ख़्वाब थे
लेकिन कहाँ है उन में वो पहली सी दिलकशी....

रहते थे हम हसीन ख़यालों की भीड़ में
उलझे हुए हैं आज सवालों की भीड़ में
आने लगी है याद वो फ़ुर्सत की हर घड़ी....

शायद ये वक़्त हमसे कोई चाल चल गया
रिश्ता वफ़ा का और ही रंगो में ढल गया
अश्कों की चाँदनी से थी बेहतर वो धूप ही.....

--------------- सुदर्शन फाकिर.

Friday, July 26, 2013

सवाल करते रहो और जवाब रहने दो

सफ़र का साथ हैं ये मंजिलों का साथ नहीं,
गुजर ही जायेंगे लम्हे हिसाब रहने दो....
ये ख़ामोशी भी हमारी अना का परदा हैं,
सवाल करते रहो और जवाब रहने दो.....!!

------------ अज्ञात.
 

with  ...

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जब्त कहता हैं ख़ामोशी में बसर हो जाए,
दर्द की जिद है दुनिया को खबर हो जाए...!!

------------ अज्ञात.


Thursday, July 25, 2013

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं

------------ निदा फाजली.

please understand.

देर से

कहीं छत थी, दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया, वो दिया देर से....

हुआ न कोई काम मामूल से
गुज़ारे शब-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से.....

कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आई शब
हुये बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से.........

ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़ामोशी सदा देर से.....

सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लहराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से.....

भटकती रही यूँ ही हर बंदगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझ में रौशन ख़ुदा देर से........

------------- निदा फाजली.

ओबामा मामू को चिट्ठी

ये कमबख्त दूधवाला भी ना बड़े ही कमीनेपन पर उतर आया हैं.... पहले दूध में पानी मिलाता था, अब पानी में दूध मिलाकर दे रहा हैं... कमीने की शिकायत करूंगी...

इंटरनेशनल इलाज करना पड़ेगा...

ओबामा मामू को चिट्ठी लिखनी हैं...

पता हैं किसी के पास...???

#इडियट्स.

Wednesday, July 24, 2013

शबनम की एक बूंद

शबनम की एक बूंद थी फूलों की कायनात,
वो भी ना बच सकी हवस-ए-आफताब से...!!!

--------- अज्ञात.

Tuesday, July 23, 2013

अपना फ़र्ज़

अपना फ़र्ज़
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तुम उन्हें रोक तो नहीं सकते
जो
उजालों को काला करते हैं

छिन कर
चाँद को सितारों से
बंद गारों में डाला करते है,

लेकिन,

घर के गमलों के
प्यासे पौधों को
थोड़ा
पानी तो पिला सकते हो...

किसी बच्चे की
डोर में उलझी
एक तितली
छुड़ा तो सकते हो....

बिजलीघर के
दुरुस्त होने तक
मोमबत्ती जला तो सकते हो...!!!

----------- निदा फ़ाज़ली.

Monday, July 22, 2013

घास पर खेलता है इक बच्चा

घास पर खेलता है इक बच्चा
पास माँ बैठी मुस्कुराती है...
मुझ को हैरत है जाने क्यों दुनिया
काबा -ओ-सोमनाथ जाती है...

---------- निदा फ़ाज़ली.

अयोध्या

अयोध्या ,
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हे राम ,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !

तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सिर – लाखों हाथ हैं
और विवेक भी अब
न जाने किसके साथ है ।

इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है ,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है !

हे राम , कहाँ यह समय
कहाँ तुम्हारा त्रेता युग ,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
और कहाँ यह नेता – युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण – किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक….
अब के जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे बाल्मीक !

-------- कुँवरनारायण.

Sunday, July 21, 2013

ये ज़िन्दगी

ये ज़िन्दगी
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है

ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें
बदल रही है

बदलती शक्लों
बदलते जिस्मों में
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी
नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा

सितारे तोड़ो या घर बसाओ
क़लम उठाओ या सर झुकाओ

तुम्हारी आँखों की रोशनी तक
है खेल सारा

ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा

------------ निदा फाजली.

जो हूं तो क्या हूं मैं

इसी तलाश-ओ-तजस्सुस में खो गई हूं मैं,
अगर नहीं हूं तो क्यूंकर, जो हूं तो क्या हूं मैं....!!!


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जब भी किसी ने उम्र के बढ़ने की दी दुआ,
मैं कांप कांप उठी के सजा और बढ़ गई....!!
 

Saturday, July 20, 2013

बदला न अपने आपको जो थे वही रहे

बदला न अपने आपको जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो जे़हन में नाराज़गी रहे

गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे

हर वक़्त हर मकाम पे हँसना मुहाल है
रोने के वास्ते भी कोई बेकली रहे

-------- निदा फाजली.

सन्डे

लोग सन्डे का इन्तजार करते हैं...
हम सन्डे से बेजार रहते हैं...

ये कमबख्त जमाने से अपनी कभी बनी ही नहीं....

वो हंसते नहीं, रोते हैं

जिन लोगों ने तमाम ज़िन्दगी छोटी छोटी खुशियां हासिल करने के लिये हमेशा बड़े बड़े समझौते किये हो, उन्हें ज़िन्दगी जब जब भी कोई ख़ुशी का लम्हा मयस्सर कराती हैं तब तब वो हंसते नहीं, रोते हैं....

Tuesday, July 16, 2013

आज भी उसने मेरी खातिर... मुझे पाने कि चाहत मे... तेरा रोजा रखा है

मेरे मौला...

आज जरा इस तपते दिन को..

ठंडा कर दे...

छोटा कर दे...

इसे घटा दे...

बादल के टुकडे से कहकर...

बारिश कर दे...

बूँदे आये...

हवा चले...

और सूरज गुजरे जल्दी से...

शाम आ जाये...

मेरे मालिक...!!!

आज भी उसने मेरी खातिर...

मुझे पाने कि चाहत मे...

तेरा रोजा रखा है...!!!

-----------------अज्ञात.

Wednesday, July 10, 2013

रमजान मुबारक

सभी भाइयों को रमजान मुबारक...!!!

ख़ास तौर से उन्हें जिन्होंने फलों की दुकानों पर महीने भर के एडवांस पैसे जमा कर दिए हैं, जिन्होंने सूखे मेवे और सिवईयों की खरीदारी कर ली हैं, दूध वाले को बोल दिया हैं एक्स्ट्रा दूध के लिये, नमाज की खातिर नए कुरते पाजामे और कॉटन के दुपट्टों को खरीद लाये हैं, साल भर से धूल खा रही मजहबी किताबों को झाड-पोंछ कर करीने से सजा दिया हैं और जो जन्नत का टिकट पाने के लिए कमर कसकर इबादत के मैदान में कूद पड़े हैं....
आप सभी को रमजान मुबारक......!!!

"उसके बारे में किसने सोचा हैं....
जिसका मगरिब के बाद भी रोजा हैं.."

Monday, July 8, 2013

खामोश सा अफसाना पानी से लिखा होता

गुलजार साहब का भी जवाब नहीं.... पता नहीं ऐसे लफ्ज़ उन्हें सूझते कैसे हैं जो सीधे रूह में उतर जाते हैं और कई बार ऐसे लगता हैं जैसे आपके ही जज्बातों को जुबान दी गई हो.... इसी गीत को ले लीजिये... एक तो गुलजार साहब के शब्दों का ही जादू कम नहीं था ऊपर से पंचम दा का गजब का संगीत.... और फिर केक पर चेरी की तरह लता और सुरेश वाडकर की मखमली आवाज़.... इन चारो हस्तियों ने मिलकर क्या सौगात दी हैं संगीत प्रेमियों को....! जितनी बार भी सुन लो दिल ही नहीं भरता....

खामोश सा अफसाना पानी से लिखा होता
ना तुमने कहा होता, ना हमने सुना होता

दिल की बात ना पूछो, दिल तो आता रहेगा
दिल बहकाता रहा है, दिल बहकाता रहेगा
दिल को तुमने कुछ समझाया होता
खामोश सा अफसाना पानी से लिखा होता

सहमे से रहते है, जब यह दिन ढलता हैं
एक दिया बुझता है, एक दिया जलता है
तुमने कोइ दीप जलाया होता
खामोश सा अफसाना पानी से लिखा होता

कितने साहिल ढूंढे, कोइ ना सामने आया
जब मझधार में डूबे, साहिल थामने आया
तुमने साहिल पहले बिछाया होता
खामोश सा अफसाना पानी से लिखा होता
ना तुमने कहा होता, ना हमने सुना होता


वैसे ये पढने की नहीं सुनने की चीज हैं......
 

http://www.youtube.com/watch?v=gVvUsbsASWs


मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी

मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख्वाब
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला

मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बंदा किसके काम का निकला

ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस खून और आँसू, चीखें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाजे
खून में लिथड़े कमसिन कुरते
जगह जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी
दरवाजों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप संभाले
मैं बेबस हूँ
आग और खून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं......

----------------- डॉ. राही मासूम रजा.

Sunday, July 7, 2013

वही फूल नज्र-ए-खिजां हुआ जिसे ऐतबार-ए-बहार था

कोई आज तक ना बदल सका
ये उसूल गुलशन-ए-जीस्त का
वही फूल नज्र-ए-खिजां हुआ
जिसे ऐतबार-ए-बहार था...

-------------------- अज्ञात.

Saturday, July 6, 2013

शम-ए-हरम हो या कि दिया सोमनाथ का

उसके फरोगे हुस्न से झमके है सब में नूर....
शम-ए-हरम हो या कि दिया सोमनाथ का...!!!

---- मीर तकी मीर.

तन्हाइयों से डर के जो शख्स मर गया

सारा शहर शरीक जनाज़े में उसके था,
तन्हाइयों से डर के जो शख्स मर गया...!!!

-------------- अज्ञात.

Thursday, July 4, 2013

मेरी रूह की हकीकत मेरे आंसुओं से पूछो

मेरी रूह की हकीकत मेरे आंसुओं से पूछो,
मेरा मजलिसे तबस्सुम मेरा तर्जुमा नहीं है....

------------ अज्ञात.

Wednesday, July 3, 2013

अपने वादों से हट रही हूं मैं

अपने वादों से हट रही हूं मैं...
जैसे टुकड़ों में बंट रही हूं मैं....

हौसला मुझमे हैं चट्टानों का,
और सबसे निपट रही हूं मैं...

हिज्र-ओ-ग़म, बेबसी और मजबूरी,
ये सबक कबसे रट रही हूं मैं...

उनसे अब राब्ता नहीं कोई,
दोस्तों अब सिमट रही हूं मैं...

याद आते हैं घर के लोग बहुत,
घर की जानिब पलट रही हूं मैं...

हैं मुसाफत से चूर चूर बदन,
धूल-मिट्टी में अट रही हूं मैं...

हुस्न वाले हैं बेवफा ऐ सोज,
चंद चेहरों से कट रही हूं मैं...

------- अज्ञात.